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________________ १८२ | योगबिन्दु मानसिक स्थिरता तथा संसारानुबन्ध - - भव-परंपरा का उच्छेद जन्म-मरण से उन्मुक्त भाव सिद्ध होता है । यह ध्यान - वेत्ताओं का अभिमत है । समता [ ३६४ ] अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । संज्ञानात् तद्व्युदासेन समता समतोच्यते ॥ अविद्या, माया या अज्ञान द्वारा परिकल्पित इष्ट - इच्छित, अनिष्ट - अनिच्छित वस्तुओं की यथार्थता का सम्यक् बोध हो जाने से उधर का आकर्षण, अनाकर्षण अपगत हो जाता है, निःस्पृहता आ जाती है । दोनों के प्रति समानता का भाव उत्पन्न हो जाता है । उसे समता कहते हैं । ऋद्ध, यप्रवर्तनं अपेक्षातन्तुविच्छेदः [ ३६५ ] चैव सूक्ष्मकर्मक्षयस्तथा । फलमस्याः प्रचक्षते ॥ समता आ जाने पर योगी की वृत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि वह प्राप्तऋद्धियों - विभूतियों या चामत्कारिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करता, उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है, उसकी आशाओं, आकांक्षाओं के तन्तु टूटने लगते हैं । यह साम्यभाव की दिव्यावस्था है । [ ३६६ ] Jain Education International अन्यसंयोगवृत्तीनां यो अपुनर्भावरूपेण स तथा । निरोधस्तथा तत्संक्षयो मतः ॥ तु आत्मा में उत्पन्न होने वाली वैभाविक निरोध, जिससे वे पुनः उत्पन्न न हों, पर-पदार्थों के संयोग से वृत्तियों का अनेक प्रकार से वैसा वृत्तिसंक्षय कहा जाता है । अतोऽपि मोक्षप्राप्तिरनाबाधा [ ३६७ ] केवलज्ञानं शैलेशीसं परिग्रहः । सदानन्दविधायिनी ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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