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________________ ध्यान | १८१ । [ ३६० ] अभ्यासोऽस्यैव विज्ञ यः प्रत्यहं वृद्धिसंगतः । मनः समाधिसंयुक्तः पौनः पुन्येन भावना ॥ इसका अभ्यास करने से, पुनः पुनः भावना करने से योगवृद्धियोग-भावना का, योग साधना का विकास होता है, चित्त समाधियुक्त होता है-चित्त में शान्तिमय स्थिति का समावेश होता है। इसे भलीभांति समझना चाहिए। [ ३६१ ] निवृत्तिरशुभाभ्यासाच्छुभाम्यासानुकूलता तथा सुचित्तवृद्धिश्च भावनाया: फलं मतम् भावानुभावित रहने के फल-स्वरूप अशुभ अभ्यास-पापमय आचरण से निवृत्ति, शुभ योगाभ्यास में अनुकूलता-निर्बाध प्रगति तथा चित्त में पवित्रता की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। 'ध्यान-- [ ३६२ ] शुभकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः । स्थिरप्रदीपसदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् शुभ प्रतीकों का एकाग्रत या आलम्बन-उन पर चित्त का स्थिरीकरण मनीषी-ज्ञानी जनों द्वारा ध्यान कहा जाता है । वह दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय होता है, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है। [ ३६३ ] वशिता चैव सर्वत्र भावस्तमित्यमेव च। अनुबन्धव्यवच्छेद उदोऽस्येति तद्विदः ॥ ध्यान के फलस्वरूप वशिता-आत्मवशता, आत्म-नियन्त्रण या जितेन्द्रियता अथवा सर्वत्र प्रभविष्णुता, सब पर अक्षुण्ण प्रभावशीलता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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