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________________ १८० | योगबिन्दु [ ३५६ ] अनोदशस्य तु पुनश्चारित्रं शब्दमात्रकम् । ईदृशस्यापि वैकल्यं विचित्रत्वेन कर्मणाम् ॥ जो ऐसा नहीं है-इन गुणों से हीन है, उसके चारित्र नाम मात्र का -केवल वेश आदि बाह्य चिन्हों के रूप में होता है। जो ऐसा है-इन गुणों से युक्त होता है, उसके भी पूर्व-संचित कर्मों की विचित्रता- प्रतिकूल प्रभावकारिता के कारण चारित्र में दोष आ जाता है। [ ३५७ ] | देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः । अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादि: संप्रवर्ती देश (अंशतः परिपालन) आदि के भेद से महान् पुरुषों ने चारित्र अनेक प्रकार का बतलाया है । पूर्व-वणित अध्यात्म आदि योग में चारित्री संप्रवृत्त होते हैं-अभ्यासरत रहते हैं। [ ३५८ ] औचित्याद् वृत्तमुक्तस्य वचनात् तत्त्वचिन्तनम् मैन्या दिसारमत्यन्तमध्यात्म तद्विदो विदुः औचित्यपूर्ण-विधिवत् चारित्र्यसेवी पुरुष का शास्त्रानुगामी तत्त्व-चिन्तन, मैत्री, करुणा, प्रमोद तथा माध्यस्थ्य रूप उत्तम भावनाओं का जीवन में सम्यक् स्वीकार ज्ञानी जनों द्वारा अध्यात्म कहा जाता है । [ ३५६ ] अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव तु इससे पापों का क्षय होता है, आत्मपराक्रम जागरित होता है तथा पवित्र आचरण उदित होता है, तथा अविनश्वर ज्ञान स्वायत्त होता है, जो अनुभव संसिद्ध-अनुभूति-प्रसूत अमृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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