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________________ योग्यताकन | १८६ के व्यक्तित्व में ऐसी पवित्रता आ जाती है कि जिस समय वह जप नहीं करता हो, उस समय भी उसकी अन्तर्वृत्ति जप पर ही केन्द्रित रहती है। [३८८ ] मुनीन्द्र : शस्यते तेन यत्नतोऽभिग्रहः शुभः । सदाऽतो भावतो धर्मः क्रियाकाले क्रियोद्भवः ।। जप के सन्दर्भ में किये जाते विशेष लक्ष्यपूर्ण शुभ संकल्प की मुनिवर्य प्रशंसा करते हैं, क्योंकि उससे क्रियोचित समय में क्रिया परिसम्पन्न होती है । उसके फलस्वरूप भाव-धर्म अन्तःशुद्धिमूलक अध्यात्म धर्म निष्पन्न होता है। योग्यतांकन - [ ३८६ ] स्वौचित्यालोचनं सम्यक् ततो धर्मप्रवर्तनम् । आत्मसंप्रेक्षणं चैव तदेतदपरे जगुः ।। कतिपय अन्य विचारकों के अनुसार अपने औचित्य-योग्यता का सम्यक् आलोचन--भली-भाँति अंकन, तदनुसार धर्म में प्रवृत्ति तथा आत्मसंप्रेक्षण-आत्मावलोकन अध्यात्म है। [ ३६० ] • योगेभ्यो जनवादाच्च लिङ्गभ्योऽथ यथागमम् । स्वौचित्यालोचनं प्राहुर्योगमार्गकृतश्रमाः॥ जिन्होंने योग के मार्ग में श्रम किया है-जो तपे हुए योग साधक हैं, वे बतलाते हैं कि साधक योग द्वारा, जनवाद द्वारा तथा शास्त्र-वर्णित चिन्हों द्वारा अपनी योग्यता का अवलोकन करें। [ ३६१ ] योगा: कायादिकर्माणि जनवादस्तु तत्कथा । शकुनादीनि लिङ्गानि स्वौचित्यालोचनास्पदम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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