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२०४ | योगबिन्दु
जहां भावों में औचित्य-उचित स्थिति, उज्ज्वलता, पवित्रता होती है, वहाँ व्यक्ति बिना विशेष उपदेश के ही अन्तःप्रेरणा से स्वयं प्रेरित होकर सत्कार्य में प्रवृत्त होता है।
[ ३४५ ] अतस्तु भावो भावस्य तत्वतः संप्रवर्तकः । शिराकूपे पय इव पयोवृद्ध नियोगतः ॥
वास्तव में मनुष्य का एक पवित्र भाव दूसरे पवित्र भाव को उत्तरोत्तर उत्पन्न करता जाता है। जैसे कुए के भीतर भूमिवर्ती जल-प्रणालिका द्वारा अनवरत जल-वृद्धि होती रहती है, उसी प्रकार यह पवित्र भावमयी परंपरा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती रहती है-विकसित हो जाती है।
[ ३४६ ] निमित्तमुपदेशस्तु पवनादिसमो मतः ।
अनैकान्तिकभावेन सतामढव वस्तुनि ॥ जैसे कुए को सफाई-जल-प्रणालिका के समीपवर्ती पत्थर, कर्दम आदि को हटाना जल-वृद्धि का निमित्त बनता है, उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में जैसा कि सत्पुरुष बतलाते हैं, अन्य का उपदेश निमित्त रूप में प्रेरक होता है पर वह ऐकान्तिक रूप में वैसा हो ही, यह बात नहीं है। वह सामान्यतया वैसो प्रेरणा करता है ।
[३४७ ] प्रक्रान्ताद् यदनुष्ठानादौचित्येनोत्तरं भवेत् ।। तदाश्रित्योपदेशोऽपि ज्ञयो विध्यादिगोचरः ॥
औचित्यपूर्ण सदनुष्ठान क्रियान्वित करने से आगे भी वैसे पवित्र अनुष्ठान में प्रवृत्ति होती है । ऐसे सदनुष्ठान पुरुष को उद्दिष्टकर शास्त्र'विधि-शास्त्र-सम्मत आचार के सम्बन्ध में उपदेश किया जाए-यह जानना चाहिए।
[३४८ ] प्रकृतेर्वाऽऽनुगुण्येन चित्रः सद्भावसाधनः । गम्भीरोक्त्या मितश्चैव शास्त्राध्ययनपूर्वकः
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