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भाग्य तथा पुरुषार्थ | १७५ गंभीर उक्ति द्वारा शास्त्राध्ययनपूर्वक-शास्त्र के उद्धरण प्रस्तुत करते हुए परिमित शब्दों में श्रोता की प्रकृति के गुणानुरूप दिया गया उपदेश उनमें अनेक प्रकार से सात्त्विक भाव उत्पन्न करने का हेतु बनता है।
[ ३४६ ] शिरोदकसमो भाव आत्मन्येव व्यवस्थितः । प्रवृत्तिरस्य विज्ञ या चाभिव्यक्तिस्ततस्ततः
जैसे कुए को अन्तर्वर्ती जल-प्रणालिका जल का मूल स्रोत है, मूलतः जल वहीं होता है, बाह्य साधन, प्रयत्न उसे अभिव्यक्ति देते हैं-प्रकट करते हैं। वैसे ही मोक्षोपयोगी उत्तमभाव वास्तव में आत्मा में ही विशेष रूप से अवस्थित हैं, साधना के उपक्रम उन्हें अभिव्यक्त करते हैं ।
[ ३५० ] सत्क्षयोपशमात् सर्वमनुष्ठानं शुभं मतम् ।
क्षीणसंसारचक्राणां ग्रन्थिभेदादयं यतः ॥
जिनका संसार चक्र-जन्म-मरण का चक्र ग्रन्थि-भेद हो जाने से लगभग क्षीण होने के समीप होता है, सत्क्षयोपशम के कारण उनके सभी अनुष्ठान शुभ माने गये हैं।
[ ३५१ ] भाववृद्धिरतोऽवश्यं सानुबन्धं शुभोदयम् ।
गीयतेऽन्यैरपि ह्येतत् सुवर्णघटसन्निभम् ॥
उनसे अवश्य ही पवित्र भावों की वृद्धि होती है, जो पुण्य पूर्ण परंपरा की श्रृंखला के रूप में आगे चलती रहती है। अन्य सैद्धान्तिकों ने इसे स्वर्णघट के समान बताया है, टूटने पर भी जिसका मूल्य कम नहीं होता। .
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