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भाग्य तथा पुरुषार्थ | १७३ यों जीव की जब औचित्यानुसारी-धर्मसाधनोचित प्रवृत्ति होने लगती है, वह असत् कार्यों में संलग्न नहीं होता। नियमपूर्वक श्रेष्ठ कार्यों में लगा रहता है, जिससे उसके संचित कर्मों का क्षय होता है।
[ ३४१ ] संसारावस्य निर्वेदस्तथोच्चैः पारमार्थिकः ।
संज्ञानचक्षुषा सम्यक् तन्नैगुण्योपलब्धितः ॥ । ज्ञान रूपी नेत्र द्वारा सम्यक्तया तत्त्वावलोकन करने पर साधक को इस जगत् में सुख, समाधि, शान्ति आदि गुण दिखाई नहीं देते, जन्म, वृद्धावस्था, रोग, शोक, मृत्यु आदि ही दीखने लगते हैं । इसीलिए उसे परमार्थतःयथार्थ रूप में संसार से वैराग्य हो जाता है ।
[ ३४२ ] मुक्तौ दृढानुरागश्च तथातद्गुणसिद्धितः । विपर्ययमहादुःखबीजनाशाच्च तत्त्वत:
मुक्ति में उसका सुदृढ़ अनुराग हो जाता है क्योंकि वह मोक्षोपयोगी गुणों को पहले ही संग्रहीत कर चुकता है तथा विपरीत ज्ञान रूप महादुःख के बीज को वास्तव में नष्ट कर चुकता है।
[ ३४३ ] एतत्यागाप्तिसिद्ध यर्थमन्यथा अस्यौचित्यानुसारित्वमलमिष्टार्थसाधनम्
सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग तथा मोक्ष-प्राप्ति का लक्ष्य लिए साधक मोक्षानुरूप या अध्यात्म-योग-संगत कार्य-विधि में प्रवृत्त रहता है, जिससे वह अपना इष्ट-आध्यात्मिक दृष्टि से अभीप्सित लक्ष्य साध लेता है । जो ऐसा नहीं करता, वह संसार-वृद्धि करने वाली प्रवृत्ति को छोड़ नहीं सकता।
[ ३४४ ] औचित्यं भावतो यत्र तत्रायं संप्रवर्तते । उपदेशं विनाऽप्युच्चरन्तस्तेनैव चोदितः
तदभावतः ।
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