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________________ २७२ | योगबिन्दु [ ३३६ ] तत्त्वं पुनर्द्व यस्यापि तत्स्वभावत्वसंस्थितौ । भवत्येवमिदं न्यायात् तत्प्रधान्याद्यपेक्षया ॥ भाग्य और पुरुषार्थ-दोनों की स्थिति प्रधान-गौण-भाव से अपनेअपने स्वभाव पर टिकी है । जब जो प्रधान-मुख्य या प्रबल होता है, तब वह दूसरे को उपहत कराता है-प्रभावित करता है या दबाता है। [ ३३७ ] एवं च चरमावर्ते परमार्थेन बाध्यते। दैवं पुरुषकारेण प्रायशो व्यत्ययोऽन्यदा ॥ अन्तिम पुद्गल-परावर्त में भाग्य पुरुषार्थ द्वारा वस्तुतः उपहत होता है और उससे पूर्ववर्ती पुद्गलावों में पुरुषार्थ भाग्य द्वारा उपहत या पराभूत रहता है। [ ३३८ ] तुल्यत्वमेवमनयोर्व्यवहाराद्यपेक्षया सूक्ष्मबुद्ध याऽवगन्तव्यं न्यायशास्त्राविरोधतः ॥ धर्मशास्त्र तथा तर्क के अनुसार, साथ ही साथ व्यावहारिक दृष्टि से भी भाग्य एवं पुरुषार्थ परस्पर तुल्य हैं, व्यक्ति को सूक्ष्म बुद्धिपूर्वक यह समझना चाहिए। [ ३३६ ] एवं पुरुषकारेण ग्रन्थिभेदोऽपि संगतः ।। तदूर्ध्व बाध्यते दैवं प्रायोऽयं तु विजृम्भते ॥ अन्तिम पुद्गल-परावर्त में पुरुषार्थ द्वारा जो ग्रन्थि-भेद की स्थिति आती है, वह सर्वथा संगत है । उससे ऊर्ध्ववर्ती विकास की यात्रा में, गुणस्थानों के उत्थान-क्रम में प्रायः पुरुषार्थ द्वारा दैव या भाग्य उपहत-बाधित रहता है। [ ३४० ] अस्यौचित्यानुसारित्वात् प्रवृत्ति सती भवेत् । सत्प्रवृत्तिश्च नियमाद् ध्रुवः कर्मक्षयो यतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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