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________________ भाग्य तथा पुरुषार्थ | १७१ अपने लक्षण के आधार पर प्रतिमा ही इसमें बाधिका है कि विद्यमान काष्ठ- फलक प्रतिमा नहीं है क्योंकि प्रतिमा के लक्षण वहाँ नहीं मिलते | [ ३३३ ] दार्वादेः प्रतिमाक्षेपे तद्भवः सर्वतो ध्रुवः । योग्यस्यायोग्यता वेति न चैषा लोकसिद्धितः " १ यदि काष्ठफलक प्रतिमा बनने की योग्यता रखता है तो सर्वत्र अनिवार्यतः वह प्रतिमा बने । नहीं बनता है तो उसकी योग्यता बाधित होती है। पर, लोक में ऐसा प्राप्त नहीं होता। सभी काष्ठ- फलक प्रतिमा बन जाते हों; ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । [ ३३४ ] कर्मणोऽप्येतदाक्षेपे दानादौ फलभेदः कथं नु स्यात् तथा शास्त्रादिसङ्गतः यदि कर्म पर भी इस सिद्धान्त को लागू किया जाए तो दान आदि कार्यों का परिणाम-भेद से भिन्न-भिन्न फल आने का जो अपना नियतः रूप है, जो शास्त्रानुगत है, वह भी नहीं टिक पाता । पुण्य [ ३३५ ] भावभेदतः 1 #1 शुभात् ततस्त्वसौ भावो हन्ताऽयं तत्स्वभावभाक् । एवं किमत्र सिद्ध ं स्यात् तत एवास्त्वतो ह्यदः It दान आदि पुण्य कार्य करते समय जो मन में शुभ भाव उत्पन्न होता है, वह अतीत के शुभ कर्मों का परिणाम है । पूर्व आचीर्ण कर्मों का जैसा स्वभाव होता है, उनके अनुरूप ही भावों का स्वभाव होता है । अभी जो कर्म किये जाते हैं, कालान्तर में वे अतीत के कर्म होंगे, जिनके अनुरूप आगे भाव - निष्पत्ति होगी । यदि पूछा जाए, इससे क्या सिद्ध होता है, तो कथ्य तथ्य यह होगा कि शुभ कर्मों से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं तथा शुभ भावों से शुभ कर्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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