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१७० | योगबिन्दु
[ ३३० ] तथा च तत्स्वभावत्वनियमात् कर्तृकर्मणोः ।
फलभावोऽन्यथा तु स्यान्न काङ्कटुपाकवत् ॥
कर्ता तथा कर्म के अपने नियमानुगत-नियमित स्वभाव के कारण निश्चित फल की प्राप्ति होती है। यदि वैसा न हो तो जैसे कोरडू-पत्थर की तरह स्वभावतः कड़ा मूंग बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं पकता, उसी प्रकार उनके कर्म-समवाय का फल नहीं आता। सबलता-निर्बलता के कारण उपहत करने या उपहत होने की स्थिति नहीं बनती।
[ ३३१ ] कर्मानियतभावं तु यत् स्याच्चित्रं फलं प्रति ।
तद् बाध्यमत्र दादि प्रतिमायोग्यता समम् ।। यदि कर्म का अनियत भाव-अनिश्चित स्वरूप माना जाए अर्थात् वह कोई नियत-निश्चित फल नहीं देता, ऐसा स्वीकार किया जाए तो उसके फल अनिवार्यतया विविध प्रकार के हो जायेंगे, किसका क्या फल हो, यह निश्चित ही नहीं रहेगी। यदि काष्ठ स्वयं ही प्रतिमा की योग्यता प्राप्त करले, प्रतिमा हो जाए, तो उसमें कौन बाधक हो, क्योंकि प्रस्तुत अभिमत के अनुसार वस्तु की कोई नियतस्वभावात्मकता तो होती नहीं। इससे पुरुषार्थ की भी कोई सार्थकता नहीं रहती।
[ . ३३२ ] नियमात् प्रतिमा नात्र न चातोऽयोग्यतैव हि ।
तल्लक्षणनियोगेन प्रतिमेवास्य बाधकः
निश्चय ही काष्ठ-फलक जब तक अपने रूप में विद्यमान है, प्रतिमा नहीं है। काष्ठ-फलक में प्रतिमा होने की योग्यता है पर वैसी परिणति के लिए पुरुषार्थ चाहिए किन्तु वस्तु की अनियतभावात्मकता मान लेने पर पुरुषार्थ के अभाव में भी नहीं कहा जा सकता कि वह प्रतिमा नहीं हो सकती।
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