________________
भाग्य तथा पुरुषार्थ | १६६
न करने पर अपना फल नहीं देता अतः भाग्य तथा पुरुषार्थ का जो पहले लक्षण बताया गया है, वही तात्त्विक है ।
[ ३२७ ]
दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं दैवेन चैषोऽपीत्येतन्नान्यथा चोपपद्यते
ह्यहन्यते ।
भाग्य जब दुर्बल होता है तो वह पुरुषार्थ द्वारा उपहत हो जाता हैप्रभावशून्य कर दिया जाता है । जब पुरुषार्थ दुर्बल होता है तो वह भाग्य द्वारा उपहत कर दिया जाता है । यदि भाग्य और पुरुषार्थ शक्तिमत्ता में असमान न हों तो यह पारस्परिक उपहनन - एक दूसरे को दबा लेने का क्रम संभव नहीं होता ।
[ ३२८ ]
कर्ममात्रस्य
कर्मणा स्वव्यापारगतत्वे त तस्यैतदपि
नोपघातादि तत्त्वतः 1 युज्यते
॥
तत्त्वतः कर्म द्वारा कर्म का उपघात नहीं होता । जब वे कर्म अतीत एवं वर्तमान आदि अपेक्षाओं से आत्मा के साथ सम्बद्ध होते हैं, तभी परस्प रोपघात संभव होता है ।
[ ३२६ ]
उभयोस्तत्स्वभावत्वे तत्तकालाद्यपेक्षया । बाध्यबाधकभावः स्यात् सम्यग्न्यायाविरोधत:
11
भाग्य तथा पुरुषार्थ का अपना अपना स्वभाव है । भिन्न-भिन्न काल आदि की अपेक्षा से उनमें बाध्य बाधक भाव आता है ।
जो बाधित या उपहत करता है, वह बाधक कहा जाता है, जो बाधित या उपहत होता है, वह बाध्य कहा जाता है । इनका पारस्परिक सम्बन्ध बाध्य वाधक भाव है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में सम्यक्तया युक्तिपूर्वक विचार किया जाए तो निर्बाधरूप में वस्तु का यथार्थ बोध प्राप्त होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org