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सम्यक्दृष्टि और बोधिसत्त्व | १६१
[ २६५ ] विशेषं चास्य मन्यन्ते ईश्वरानुग्रहादिति ।
प्रधानपरिणामात् तु तथाऽन्ये तत्त्ववादिनः
कई दार्शनिक वैसी स्थिति प्राप्त होने में ईश्वर का अनुग्रह स्वीकार करते हैं अर्थात् ईश्वर की कृपा से ये सब प्राप्त होते हैं, ऐसा मानते हैं तथा कई तत्त्ववादी प्रकृति के परिणमन विशेष से इनके सधने की बात कहते हैं।
[ २६६ ] तत्तत्स्वभावतां मुक्त्वा नोभयत्राप्यदो भवेत् । एवं च कृत्वा ह्यत्रापि हन्तैषैव निबन्धनम् ॥
यदि आत्मा का वैसा स्वभाव न हो तो उपर्युक्त दोनों ही बातेंईश्वरानुग्रह तथा प्रकृति का परिणमन-विशेष फलित नहीं होते । जिसका विविध रूपों में जैसा परिणत होने का स्वभाव हो, अपनी उपादान-सामग्री हो, उससे विपरीत स्थिति अन्यों द्वारा नहीं लाई जा सकती। अत: आत्मस्वभावता इसका मुख्य कारण है।
[ २६७ ] आर्थ्य व्यापारमाश्रित्य न च दोषोऽपि विद्यते ।
अत्र माध्यस्थ्यमालम्ब्य यदि सम्यग निरूप्यते ॥
यदि माध्यस्थ्य-भाव-तटस्थ वृत्ति का अवलम्बन कर सम्यक् निरूपण करें, शब्दों के बजाय अर्थ-व्यापार- मूल तात्पर्य को लेकर विचार करें तो किसी अपेक्षा से इसमें दोष भी नहीं आता।
[ २९८ ] गुणप्रकर्षरूपो यत् सर्वैर्वन्द्यस्तथेष्यते । देवतातिशयः कश्चित् स्तवादेः फलदस्तथा ॥
प्रकृष्ट-उत्कृष्ट, विशिष्ट गुणयुक्त; सब द्वारा वन्दनीय देव-विशेष का स्तवन-वन्दन, पूजन आदि करने का तदनुरूप फल संभावित है, यह भी एक दृष्टि से मानने योग्य है ।
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