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________________ १६० | योगबिन्दु [ २६१ ] तथा भव्यत्वतश्चित्रनिमित्तोपनिपाततः । । एवं चिन्तादिसिद्धिश्च सन्यायागमसंगता ॥ आत्मा की अपनी योग्यता तथा भिन्न-भिन्न बाह्य निमित्तों की प्राप्ति के कारण उस (आत्मा) में सत्त्वोन्मुख चिन्तन प्रादुर्भूत होता है. जो न्यायसंगत एवं आगमानुगत है। [ २६२ ] एवं कालादि भदेन बीजसिद्ध यादिसस्थितिः । , सामग्र्यक्षया न्यायादन्यथा नोपपद्यते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विविध प्रकार के निमित्त तथा अनुकूल आत्मसामग्रीरूप उपादान के कारण बीजसिद्धि-आध्यात्मिक दृष्टि से सम्यक्ज्ञान; सम्यकदर्शन, सम्यक्चारित्र आदि एवं लौकिक दृष्टि से प्रभावकता, आदेय भाव, चक्रवतित्व, राजत्व आदि स्थितिया प्राप्त होती हैं; विविध प्रकार की चामत्कारिक सिद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त होती है। कार्य-निष्पत्ति में अपेक्षित उपादान तथा निमित्त के संयोग को स्वीकार न. किया जाए तो वह सब घटित नहीं होता, जो दृश्यमान है। । २६३ ] तत्तत्स्वभावता चित्रा तदन्यापेक्षणी तथा । सर्वाभ्युपगमव्याप्ता न्यायश्चात्र निशितः ॥ जो जो कार्य निष्पन्न होते हैं, उनके मूल में वस्तुओं के स्वभाव की विचित्रता-विविधता एवं तदनुरूप भिन्न-भिन्न निमित्तों की अपेक्षा रहती है । तदनुसार कार्यों के स्वरूप में विभिन्नता होती है। यह सिद्धान्त सर्वत्र. व्याप्त है। [ २९४ ] अधिमुक्त्याशयस्थैर्यविशेषवदिहापरैः इष्यते सदनुष्ठानं हेतुरत्रव वस्तुनि . ॥ अन्य विद्वानों के अनुसार तीर्थकर, गणधर या मुण्डकेवली जैसा पद प्राप्त करने का कारण वह सदनुष्ठान है, जिसमें साधक मोक्ष-सिद्धि. का विश्वास लिये हो, अपना चित्त विशेष स्थिरता से टिकाये हो। co Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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