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सम्यक् दृष्टि और बोधिसत्त्व | १५६ करुणा आदि गुण युक्त, पर-हित साधने में विशेष अभिरुचिशील, प्रज्ञावान्, उत्तरोत्तर विकास पाते आध्यात्मिक गुणों से समायुक्त वह सत्पुरुष अपने सदनुष्ठान में सदा यत्नशील रहता है।
[ २८८ ] तत्तत्कल्याणयोगेन कुर्वन् सत्त्वार्थमेव सः ।
तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति परं सत्वार्थसाधनम् ॥ । दूसरों का अनेक प्रकार से कल्याण साधता हुआ, उपकार करता हुआ साधक तीर्थ कर पद प्राप्त करता है, जो प्राणी मात्र के कल्याण साधने का सबसे बड़ा साधन है।
[ २८६ ] चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः ।
तथानुष्ठानत: सोऽपि धीमान् गणधरो भवेत् ॥
जो अपने पारिवारिक जनों, सम्बन्धियों का इसी प्रकार कल्याणचिन्तन करता है, उनके लिए हितकर कार्य करता है, वह मतिमान् पुरुष गणधर' का पद प्राप्त करता है।
[ २६० ] संविग्नो भवनिर्वदादात्म-निःसरणं तु यः ।
आत्मार्थसंप्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥ संसार से वैराग्य हो जाने के कारण जो संविग्न-संवेगयुक्त-हिंसा आदि परिहेय कार्यों को छोड़ आत्मस्वरूप अधिगत करने का त्वरापूर्ण उदात्त भाव लिये रहता है, आत्मोन्नति का आधार वह स्वयं है, यह सोचकर जो अपने कल्याण के लिए सम्यक् प्रयत्नशील होता है, वह मुण्डकेवली कहा जाता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है, मुण्डकेवली का लक्ष्य केवल आत्मोत्थान होता है, दूसरों के उत्थानार्थ प्रयत्नशील होना उसका विषय नहीं है। १. तीर्थ कर के प्रमुख शिष्य, जो श्रमण-संघ के अन्तर्वर्ती गणों-समुदायों के
प्रधान होते हैं।
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