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१६२ | योगबिन्दु
_____टीकाकार ने प्रस्तुत सन्दर्भ में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि देवोपासक को जो फल प्राप्त होता है, वह वस्तुतः उस साधक द्वारा किये गये वन्दन, पूजन आदि सदनुष्ठान का फल है । वन्दन, स्तवन आदि देवोद्दिष्ट होते हैं । अतः उद्दिष्टता या लक्ष्य की दृष्टि से वह देव-प्रसाद है, अभिप्रायशः ऐसा समझा जा सकता है।
[ २६६ ] भवंश्चाप्यात्मनो यस्मादन्यतश्चित्रशक्ति कात ।
कर्माद्यभिधानादेन न्यथाऽतिप्रसङ्गतः चित्रशक्तिक-विविध शक्तियुक्त-भिन्न-भिन्न प्रकार की स्थिति उत्पन्न करने में समर्थ कर्म आदि जब आत्मा को अनेक रूप में प्रभावित, परिणत करते हैं, वहाँ भी आत्मा को अपनी योग्यता या स्वभाव का साहचर्य है ही, जिसके बिना वे (कर्म आदि) फल-निष्पत्ति नहीं ला सकते फिर भी उन (कर्म आदि) द्वारा वैसा किया जाना निरूपित होता है। इस अपेक्षा से उपर्युक्त मान्यता में भी बाधा नहीं आती। ' कालातीत का मन्तव्य
__ [ ३००-३०७ ] माध्यस्थ्यमवलम्ब्यवमैदंपर्यव्यपेक्षया तत्त्वं निरूपणोयं स्यात् कालातीतोऽप्यदोऽब्रवीत् ॥ अन्येषामप्ययं मार्गो मुक्ताविधादिवादिनाम् । अभिधानादिभेदेन तत्वनोत्या व्यवस्थितः ॥ मुक्तो बुद्धोऽर्हन् वाऽपि यदैश्वर्येण समन्वितः ।। तदीश्वरः स एव स्यात् संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् ॥ अनादिशुद्ध इत्यादिर्वश्च भेदोऽस्य कल्प्यते । तत्तत्तन्त्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥ विशेषस्यापरिज्ञानाद् युक्तीनां जातिवादतः । प्रायो विरोधतश्चै फलाभेदाश्च भावतः अविद्या क्लेश-कर्मादि यतश्च भवकारणम् । ततः प्रधानमेवैतत् संज्ञाभेदमुपागतम
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