SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १९ ) आबद्ध रहता है। कितनी दयनीय स्थिति है यह ! वह जोना चाहता है, फिर छककर भोगों को भोग लेना चाहता है। इन स्थितियों के साथ-साथ है तो विरल पर एक और स्थिति भी है, जहाँ भोग विषवत् त्याज्य प्रतीत होने लगते हैं। क्या कारण है, यह स्थिति सब में नहीं आती, किन्हीं किन्हीं- बहुत थोड़े से लाखों में एक दो व्यक्तियों में प्रस्फुटित होती है। संस्कारवत्ता तो है ही, मनोविज्ञान एक और समाधान देता है । उसके अनुसार काम. वासना, भोग आदि मनुष्यों की निसर्गज वृत्तियाँ हैं. जिनमें वह अनपम सुख की मान्यता लिये रहता है । इसलिए तीव्रतम उत्कण्ठा के रूप में उसकी निष्ठा उनसे जुड़ी रहती है। पर यह अपरिवर्त्य नहीं है। कुछ थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में किसी घटना-विशेष से या विशिष्ट ज्ञान के उद्भव से इसके विपरीत भी कुछ घटित होता है । इच्छा की तीव्रता तो नहीं मिटती पर इच्छा जिस पर टिकी होती है, वह लक्ष्य बदल जाता है, भोग के स्थान पर वैराग्य, साधना, ज्ञान, कला या साहित्य संप्रतिष्ठ हो जाता है । परम उदग्र इच्छाशक्ति इनमें से किसी के साथ जुड़ जाती है। निश्चय ही तब फल निष्पत्ति में एक चमत्कार आता है । मनोविज्ञान की भाषा में यह दिक्-परिष्कार (Sublimation) कहा जाता है। वैसे व्यक्ति बहुत बड़े साधक, प्रखरज्ञानी, महान् साहित्यकार आदि होते हैं । अन्तर्वृत्ति में यों परिवर्तन हो जाने पर व्यक्ति को अपने स्वीकार्य और गन्तव्य पथ से कोई चलित नहीं कर सकता। ___ इसी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर यदि चिन्तन करें तो लगता है, पिता एवं पुत्री के साथ जो घटित हुआ, जिस दिव्य दिशा की ओर उनके कदम बढ़े चले, उनसे यही संभावित था। साधना की इस यात्रा में आगे जो कुछ हुआ, वह साक्ष्य है इस बात का, (जो पहले चर्चित हुई है) तीव्रतम इच्छाशक्ति का परिणाम शक्ति-स्फोट में आता है, जो जीवन को असाधारण वैशिष्ट्य से समायुक्त कर देता है । पिता श्री मांगीलालजी, जो तब मुनि श्री मांगीलालजी थे, सर्वतोभावेन प्राणपण से. अध्यात्मसाधना में जुट गये । योगी के जीवन में सहजरूप में जो विभूतियाँ प्राकट्य पा लेती हैं, उनमें भी कुछ वैसी निष्पत्तियाँ हुई। तभी तो यह संभव हो सका, उन्होंने छः महीने पूर्व ही अपने मरण का समय बता दिया था, जो ठीक उसी रूप में घटित हुआ। ऐसे महान् पिता की पुत्री और महान् गुरु की शिष्या महासतीजी ने प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के बाद जहाँ एक ओर अपने को श्रुतोपासना में लगाया, दूसरी ओर योग साधना का वरेण्य क्रम भी उनके जीवन में चलता रहा । अनेक ज्ञानियों, साधकों तथा महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने, उनसे सीखने, समझने का उन्हें सौभाग्य रहा, जिसका उन्होंने तन्मयता तथा लगन के साथ उपयोग किया, जो उनके वैदुष्य और साधना प्रवण जीवन में साक्षात् परिदृश्यमान है। महासती जो एक जैन श्रमणी हैं, पाद-विहार, धर्म-प्रसार जिनके जीवन का अपरिहार्य भाग होता है। उन्होंने राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy