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में उन्होंने जन्म पाया। केवल वे सात दिन की थीं, तभी मातृवियोग हो गया । देवदुर्लभ मातृ-वात्सल्य से विधि ने उन्हें सदा के लिए वञ्चित कर दिया । पिता को स्नेहमयी गोद में उनका लालन-पालन हुआ । मातृत्व एवं पितृत्व के दुहरे स्नेह का केन्द्र केवल उनके पितृचरण थे, जिन्होंने अपने अन्तर्तम की स्निग्धता से उसे फलवत्ता देने में कोई कसर नहीं रखी । पिता की छत्रच्छाया में परिपोषण, संवर्धन प्राप्त करते हुए ज्यों ही उन्होंने अपना ग्यारहवां वर्ष पूरा कर बारहवें में प्रवेश किया, केवल थोड़े से समय बाद (साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में) वे परिणय-सूत्र में आबद्ध कर दी गई। विधि की कैसी विडम्बना थी, अभी गौना भी नहीं हो पाया था, मात्र दो वर्ष बाद उनके पतिदेव दिवंगत हो गये । वह एक ऐसा भीषण दुःसह बज्रपात था, जिसको कोई कल्पना तक नहीं की जा सकती । पर विधि-विधान के आगे किसका क्या वश ! फूल सी कोमल बालिका यह समझ तक न सकी, क्या से क्या हो गया। सारे परिवार में अपरिसीम शोक व्याप्त हो गया। हिमाद्रि जैसे सुदृढ़ एवं सबल हृदय के धनी पिता भी सहसा विचलित से हो गये ।
यह वह स्थिति थी, जिसमें जीवन भर रोने-विलखने के अतिरिक्त और कुछ बाकी रह नहीं पाता । पर यह सामान्य जनों की बात है। महासतीजी तो विपुल सत्त्वसंभृत संस्कारवत्ता के साथ जन्मी थीं, उनके चिन्तन ने एक नया मोड़ लिया, जो उन जैसी बोधि-निष्पन्न आत्माओं को लेना ही होता है। उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी । उनके मन में निर्वेद का जो बीज सुषुप्तावस्था में था, अंकुरित हो उठा और थोड़े ही समय में वह पल्लवित एवं पुष्पित पादप के रूप में विकसित हो गया। जैसा मैंने ऊपर उल्लेख किया है, महासतीजी के पितृचरण एक दिव्य संस्कारी वीर पुरुष थे । उनका लौकिक जीवन साहस, शौर्य और पराक्रम का जीवित प्रतीक था। क्षयोपमवश कुछ ऐसी दिव्यता उन्हें जन्म से ही प्राप्त थी कि साधारण उदरंभरि और भोगोपभोगी मनुष्य के रूप में वे जीवन की इतिश्री कर देना नहीं चाहते थे। बाह्य अध्ययन विशेष न होते हुए भी उनकी आभ्यन्तर चेतना उबुद्ध थी, जो जन्म के साथ ही आती है । पिता और पुत्री के. परम पवित्र अन्तर्भाव की फल निष्पत्ति श्रमण-प्रव्रज्या में हुई । उद्बुद्धचेता, सात्त्विक जन, जब अन्तरात्मा जाग उठती है, तब फिर विलम्ब क्यों करें। उक्त विषम, दुःखद घटना के लगभग वर्ष भर बाद उन्होंने (पिता पुत्री ने) परम पूज्य स्व० आचार्य श्री जयमल्लजी म० सा० से आम्नायानुगत तत्कालीन श्रमण संघीय मारवाड़ प्रान्त मन्त्री पूज्य स्वामीजी श्री हजारीमल जी म० सा० तथा बालब्रह्मचारिणी महासती श्री सरदारकुँवर जी म० सा० को सन्निधि में श्रमणदीक्षा स्वीकार कर ली।
बड़ा आश्चर्य है, इस भोगसंकुल जोवन में यह कैसे सध जाता है, जहाँ मौत की अन्तिम सांसें गिनता हुआ मनुष्य भी मन से भोगों को नहीं छोड़ पाता । मृत्यु मस्तक पर मंडराती है पर उस समय भी क्षुद्र सांसारिक सुखमय, वासनामय मनःस्थिति में
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