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________________ ( १७ ) मैंने मन ही मन निश्चय किया कि उनकी सेवा में अपनी भावना उपस्थित करू। तदनुसार वहाँ पहुँचा और यह अनुरोध किया कि यदि उनका मार्गदर्शन तथा संयोजन प्राप्त होता रहे तो प्रकाण्ड विद्वान, महान् योगी आचार्य हरिभद्र के योग सम्बन्धी चारों ग्रन्थ हिन्दी जगत् की सेवा में प्रस्तुत किये जा सकें। उत्तर में महासतीजी के जो प्रेरक उद्गार मुझे प्राप्त हुए, मैं हर्ष-विभोर हो गया। उनकी स्वीकृति प्राप्त कर मैंने अपने को धन्य माना । एक परमोत्तम संयमशील पवित्रात्मा की सत्प्रेरणा का संबल लेकर मैं अपने स्थान-सरदारशहर लौट आया तथा अपने को सर्वतोभावेन इस कार्य में लगा दिया। इस बीच कार्य उत्तरोत्तर गति पकड़ता गया । उस सन्दर्भ में मार्ग-दर्शन प्राप्त करने हेतु महासतीजी महाराज की सेवा में उपस्थित होने के अवसर मिलते रहे । ज्यों-ज्यों मैं उनकी आध्यात्मिक सन्निधि में आता गया, मुझे उनके व्यक्तित्व की वे असाधारण विशेषताएँ अधिगत होने लगीं जिन्हें साधारण चर्मचक्षुओं से देखा नहीं जा सकता। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्र योगी तथा निष्पन्न योगी के रूप में योग-साधकों के जो चार भेद किये हैं, परमश्रद्धया महासतीजी की गणना मैं कुलयोगियों में करता हूँ। आचार्य हरिभद्र के अनुसार कुलयोगी वे होते हैं जिन्हें जन्म से ही योग के संस्कार प्राप्त होते हैं, जो समय पाकर स्वयं उबुद्ध हो जाते हैं, व्यक्ति योग-साधना में सहज रस की अनुभूति करने लगता है। जो योगी अपने पिछले जन्म में अपनी योग-साधना सम्पूर्ण नहीं कर पाते, बीच में ही आयुष्य पूरा कर जाते हैं, आगे वे उन संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं । अतएव उनमें स्वयं योग-चेतना जागरित हो जाती है । कुलयोगी शब्द यहाँ कुल परम्परा या वंश-परम्परा के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हैं। क्योंकि योगियों का वैसा कोई कुल या वंश नहीं होता पर महासतीजी के साथ इस शब्द से नहीं निकलने वाला यह तथ्य भी घटित हो जाता है, ऐसा एक विचित्र संयोग उनके साथ है । महासतीजी के पूज्य पितृचरण भी एक संस्कारनिष्ठ योगी थे । घर में रहते हुए भी वे आसक्ति और वासना से ऊपर उठकर साधनारत रहते थे । यों आनुवंशिक या पैतृक दृष्टि से भी महासतीजी को योग प्राप्त रहा। इस प्रकार कुलयोगी का प्रायः अन्यत्र अघटमान अर्थ भी पूजनीया महासतीजी के जीवन में सर्वथा घटित होता है। ऐसे व्यक्तित्व के संदर्शन तथा सान्निध्य से सत्त्वोन्मुख अन्तःप्रेरणा जागरित हो, यह स्वाभाविक ही है। न यह अतिरंजन है और न प्रशस्ति ही, जब भी मैं महासतीजी के दर्शन करता हूँ, कुछ ऐसा अध्यात्म-संपृक्त पवित्र वात्सल्य प्राप्त करता हूँ, जिससे मुझे अपने जीवन की रिक्तता में आपूर्ति का अनुभव होता है । मैं इसे अपना पुण्योदय ही मानता हूँ कि मुझे इस साहित्यिक कार्य के निमित्त से समादरणीया महासतीजी का इतना नकट्य प्राप्त हो सका। महासतीजी के जीवन के सम्बन्ध में गहराई से परिशीलन कर जैसा मैंने पाया, निश्चय ही वह पत्रित्र उत्क्रान्तिमय जीवन रहा है । एक सम्पन्न, सम्भ्रान्त परिवार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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