________________
(
१६
)
सकता है। अतः इनके झंझट में न पड़कर जितनी जिसकी शक्ति हो, अपना कार्य करते रहना चाहिए।
लगभग नौ दस महीने पूर्व की घटना है, मैं एक साहित्यिक कार्य के सन्दर्भ में वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य, बहुश्रुत मनीषी, पंडितरत्न श्री मधुकर मुनि जी म० सा० से भेट करने नागौर गया था । इस समय प्रौढ़ विदुषी, परम अध्यात्मसाधिका महासती श्री उमरावकुवर जी म० सा० 'अर्चना' भी साध्वीसमुदाय सहित वहाँ विराजित थीं।
पिछले पाँच छ: वर्षों से मैं श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म० सा० के संपर्क में हूँ । सुयोग्य विद्वान्, प्रबुद्ध आगम-वेत्ता तथा प्रौढ़ लेखक होने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी विशेषता है-उनकी सहज ऋजुता, कोमलता तथा मधुरता । न उन्हें अपने ज्ञान का दम्भ है, न पद का अभिमान । उनके स्वभाव में जो अनिर्वचनीय सरलता का दर्शन होता है, वह उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक आकर्षक गुण है । वे स्वयं विद्वान् है, अतएव विद्या की गरिमा जानते हैं, विद्या का और विद्वान् का सम्मान करते हैं, उन्हें स्नेह देते हैं। यही कारण है, ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उनके प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया। उनके सान्निध्य में चल रहे आगम-प्रकाशन के कार्य में भी मेरा भाग है तथा उनके दूसरे साहित्यिक कार्य में भी मेरा यत्किञ्चित् साहचर्य है।
अस्तु, युवाचार्य श्री ने अगले दिन सबेरे नागौर से प्रस्थान किया। अगला पड़ाव एक छोटे से गांव में था । मैं भी पैदल ही उनके साथ गया। दिन भर मैं उनकी सन्निधि में रहा । अपराह्न में जब युवाचार्य श्री से वापस लौटने की अनुमति लेने लगा तो उन्होंने विशेष रूप से कहा कि नागौर में महासती जी श्री उमरावकुवर जी से मिलियेगा । मैं शाम को नागौर लौट आया। नृसिंह सरोवर पर रुका था, रानि प्रवास वहीं किया । महासती जी से भेंट करने के सम्बन्ध में प्रातः सोच ही रहा था, मैं नहीं जानता, ऐसा क्यों हुआ, पर हुआ-योग वाङमय के अपने अध्ययन के सन्दर्भ में आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के उस संस्करण की ओर सहसा मेरा ध्यान गया, जिसे मैंने पढ़ा था, जिसके सम्पादन, प्रकाशन आदि में महासती श्री उमरावकुवर जी म० सा० का सबसे बड़ा योगदान रहा था । महासती जी के जीवन का अध्यात्म-संपृक्त योग-पक्ष सहसा मेरे अन्तर्नेत्रों से गुजर गया, जिसमें मुझे साधना की दिव्यता दृष्टिगोचर हुई। महासतीजी का मैं पहली बार दर्शन करने नहीं जा रहा था। अब से तीन चार वर्ष पूर्व जब मेड़ता गया था तो अपने स्नेही मित्र श्रीयुक्त जतनराज जी मेहता के साथ पहले पहल उनके दर्शन करने तथा उनसे ज्ञानचर्चा करने का प्रसंग प्राप्त हुआ था। उसके बाद भी सौभाग्यवश कई बार वैसा अवसर मिलता रहा । उन सबका एक समवेत प्रभाव मेरे मानस पर यह था कि जैन योग में पूजनीया महसती जी की अनन्य अभिरुचि है तथा असाधारण अधिकार भी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org