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१५० | योगबिन्दु कता है कि उससे तीनों लोकों की सुख-समृद्धि प्राप्त हो जाती है और अन्ततः मोक्ष प्राप्त होता है ।।
[ २५६ ] हेतुभेदो महानेवमनयोयद् व्यवस्थितः ।
चरमात् तद् युज्यतेऽत्यन्कं भावातिशययोगतः ॥
इन दोनों प्रकार की शुश्रुषाओं में कारण का बड़ा भेद है। अन्तिम पुद्गल-परावर्त में स्थित भव्य प्राणी को अपने उत्तम भावों के कारण वीतराग-वाणी सुनने में प्रीति होती है।
[ २५७ ] धर्मरागोऽधिकोऽस्यैवं भोगिनः स्न्यादिरागतः । भावत: कर्मसामर्थ्यात् प्रवृत्तिस्त्वन्यथाऽपि हि ॥
भोगासक्त पुरुष को स्त्री आदि के प्रति जितना अनुराग होता है, सम्यकदृष्टि पुरुष को धर्म के प्रति उससे कहीं अधिक अनुराग होता है। यदि पूर्वकृत कर्मों के परिणामस्वरूप कभी संसार में उसकी विपरीत प्रवत्ति हो तो भी उसका धर्मानुराग मिटता नहीं।
[ २५८ ] न चैवं तत्र नो राग इति युक्त्योपपद्यते ।
हविः पूर्णप्रियो विप्रो भुङ्क्ते यत् पूयिकाद्यपि ॥ _ विपरीत प्रवृत्ति में धर्मानुराग नहीं टिकता, ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। उदाहरणार्थ, जैसे ब्राह्मण को घृतसिक्त मिष्ठान्न प्रिय होता है किन्तु उसे कभी रूखा-सूखा भोजन भी करना पड़ता है। उसका यह अर्थ नहीं होता कि उसे मिठाई से अनुराग नहीं है । रूखा-सूखा भोजन तो उसे बाध्य होकर करना पड़ता है, उसकी चाह तो मिठाई में ही रहती है । यही स्थिति यहां वर्णित सम्यक्दृष्टि साधक के साथ है। उसकी चाह तो सदा धर्म में ही रहती है, प्रतिकूल प्रवृत्ति में पड़ जाना होता है, यह पूर्वाजित कर्मों का परिणाम है, दुर्बलता है।
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