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सम्यक्-दृष्टि | १४६ सम्यक्ष्टि : 'स्वरूप'
[ २५२ ] स्वतन्त्रनीतितस्त्वेव ग्रन्थिभेदे तथा सति ।
सम्यग्दृष्टिर्भवत्युच्चः प्रशमादिगुणान्वितः ॥
जैसा जैन शास्त्रों में वर्णित हुआ है, ग्रन्थि-भेद हो जाने पर जीव सम्यक्-दृष्टि हो जाता है। उसमें प्रशम-उत्कृष्ट शान्त भाव आदि गुण विशेष रूप से प्रकट हो जाते हैं।
[ २५३ ] शुश्रूषा धर्मरागश्च गुरु-देवादिपूजनम् । यथाशक्तिविनिर्दिष्टं लिङ्गमस्य महात्मभिः ॥
यथाशक्ति धर्म-तत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, गुरु तथा देव आदि की पूजा-ये उसके चिह्न या लक्षण हैं, ऐसा महापुरुषों ने बतलाया है।
__ [ २५४ ] न किन्नरादिगेयादौ शुश्रूषा भोगिनस्तथा ।
यथा जिनोक्तावस्येति हेतुसामर्थ्यभेदतः ॥
सम्यक्दृष्टि पुरुष को वीतराग-प्ररूपित उपदेश, तत्त्व-ज्ञान सुनने में इतनी प्रीति होती है, जितनी एक भोगासक्त पुरुष को किन्नर, गन्धर्व प्रभृति संगीतप्रिय विशिष्ट देवों द्वारा गाये जाते गीत आदि सुनने में भी नहीं होतो। इसका कारण हेतु तथा सामर्थ्य का भेद है ।
[ २५५ ] तुच्छं च तुच्छनिलयप्रतिबद्धं च तद् यतः ।
गेयं जिनोक्तिस्त्रैलोक्यभोगसंसिद्धिसंगता ॥
पूर्वोक्त गीत तुच्छ-साररहित होता है, तुच्छ-हलके विषय से सम्बद्ध होता है किन्तु वीतराग-वाणी की अपनी ऐसी विशेषता तथा प्रभाव
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