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________________ सम्यक् - दृष्टि : स्वरूप | १५१ [ २५६ ] पातात् त्वस्येत्वरं कालं भावोऽपि विनिवर्तते । वातरेणुभृतं चक्षुः स्त्रीरत्नमपि नेक्षते ॥ जब व्यक्ति अपने स्थान से पतित हो जाता है- अपने द्वारा स्वीकृत सम्यकमार्ग में अपने को टिकाये नहीं रख पाता तो उसकी धर्मोन्मुख प्रवृत्ति विनिवृत्त हो जाती है-रुक जाती है । जैसे किसी मनुष्य की आँख आंध्री से उड़ी धूल से भर जाय तो वह स्त्रीरत्न - रूपवती स्त्री को भी नहीं देख सकता । [ २६० ] भोगिनोऽस्य स दूरेण भावसारं सर्वकर्तव्यतात्यागाद् गुरुदेवादिपूजनम् भोगासक्त पुरुष जैसे अपने कर्तव्य - करने योग्य कर्म छोड़कर दूर होते हुए भी सुन्दर स्त्री को तन्मयतापूर्वक देखता है, उसी प्रकार सम्यक् - दृष्टि साधक सांसारिक कार्यों से पृथक् रहता हुआ गुरु, देव आदि की पूजा, सत्कार तथा ऐसे ही अन्यान्य धार्मिक कृत्यों में तन्मयतापूर्वक संलग्न रहता है । [ २६१ ] निजं न हापयत्येव कालमत्र महामतिः । सारतामस्य विज्ञाय सद्भावप्रतिबन्धतः ॥ तथेक्षते । " वह परम प्रज्ञाशील, अनवरत उत्तम भाव युक्त पुरुष - गुरु- पूजा, देव- पूजा, आदि पवित्र कार्य धर्म का सार है, यह जानता हुआ उन ( कार्यों) के लिए अपेक्षित समय नष्ट नहीं करता, और कार्यों में खर्च नहीं करता, उन्हीं में लगाता है । Jain Education International [ २६२ ] शक्तेन्यू नाधिकत्वेन नावाप्येष प्रवर्तते । प्रवृत्तिमात्र मेतद् यद् यथाशक्ति तु सत्फलम् ॥ शक्ति की न्यूनता या अधिकता के कारण साधक को प्रवृत्ति उसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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