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विधा शुद्ध अनुष्ठान | १४३
[ २२६ ] मलिनस्य यथाऽत्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्रं विदुर्बुधा
जैसे मैला वस्त्र जल द्वारा धोये जाने पर अत्यन्त स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही अन्तःकरण की स्वच्छता-शुद्धि शास्त्र द्वारा होती है, ऐसा ज्ञानी पुरुष मानते हैं।
[ २३० ] शास्त्रे भक्तिर्जगन्द्वन्ध मुक्तेर्दूतो परोदिता । अत्रैवेयमतो न्याय्या तत्प्राप्त्यासन्नभावतः
शास्त्र-भक्ति मानो मुक्ति की दूती है अर्थात् आत्मारूपी प्रेमोआशिक तथा मुक्तिरूपी प्रेमिका-माशूका का मिलन कराने में-आत्मा को मुक्ति-संयुक्त कराने में वह सन्देशवाहिनी का कार्य करती है। मुक्ति का सन्देश आत्मा तक पहुंचाती है, जिससे आत्मा में मुक्ति को प्राप्त करने की उत्कण्ठा बढ़ती है।
[ २३१ ] तथात्मगुरुलिङ्गानि प्रत्ययस्त्रिविधो मतः । सर्वत्र सदनुष्ठाने योगमार्गे विशेषतः ॥
आत्मा द्वारा- अन्तरावलोकन या आत्मानुभूति द्वारा, गुरु-द्रष्टा के उपदेश द्वारा, बाह्य चिन्ह, लक्षण या शकुन आदि द्वारा-यों तीन प्रकार से सदनुष्ठान में, विशेषरूप से योगमार्ग में प्रत्यय-प्रतीति या श्रद्धा होती है।
[ २३२ ] आत्मा तदभिलाषी स्याद् गुरुराह तदेव त । तल्लिङ्गोपनिपातश्च सम्पूर्ण सिद्धिसाधनम् ॥
आत्मा में सदनुष्ठान का अनुसरण करने की अभिलाषा हो, गुरु वैसा ही उपदेश करते हों तथा बाहरी चिन्ह, शकुन आदि अनुकूल हों तो इनसे अनुष्ठान की परिपूर्ण सफलता का संकेत मिलता है।
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