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१४४ | योगबिन्दु
[ २३३ ]
सिद्ध यन्तरस्य सद् बीजं या सा सिद्धिरिहोच्यते । ऐकान्तिक्यन्यथा नैव पातशक्त्यनुवेधतः
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जो उत्तमोत्तम गुणयुक्त सिद्धि की प्राप्ति में बीज या हेतुरूप होती है, वह शक्ति सिद्धि कही जाती है । वैसी सिद्धि एकान्ततः जीवन में सिद्धि - सफलता प्रदान करती है । पर जिन बाह्य चामत्कारिकः सिद्धियों से आत्मा का पतन होता है, वे वास्तव में सिद्धियाँ नहीं कहीं जा सकतीं ।
[ २३४ ]
सिद्ध यन्तरं न सन्धत्ते या साऽवश्यं पतत्यधः 1 तच्छक्त्यानुविद्ध व पातोऽसौ तत्त्वतो मतः
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जो सिद्धि दूसरी - आत्मोत्थान प्राप्त करवाने रूप सिद्धि का कारण नहीं होती, उसका अवश्य ही अध:पतन होता है । यों जो पतन-कारणमयी: शक्तिमत्ता से समायुक्त है, उसको पतनरूप माना गया है ।
[ २३५ ]
सिद्ध यन्तराङ्गसंयोगात् साध्वी चंकान्तिकी भृशम् । आत्मादिप्रत्ययोपेता तदेषा नियमेन तु
जिनमें दूसरी सिद्धियों के कारणों का संयोग हो, वे सिद्धियां एकान्त रूप से श्रेष्ठ होती हैं । उनमें नियमत: आत्मा आदि तत्त्वों की प्रतीति रहती हैं । वे सिद्धियाँ अत्यन्त शुद्ध होती हैं ।
[ २३६ ]
न पायान्तरोपेयमुपायान्तरतोऽपि हि हाठिकानामपि यतस्तत्प्रत्ययपरो
जो जो सिद्धियाँ जिन जिन उपायों से प्राप्त किये जाने योग्य हैं, उनसे अन्य उपायों द्वारा अनेक प्रकार से हठपूर्वक प्रयत्न करने पर भी के प्राप्त नहीं होतीं । अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह आत्मप्रतीति का अवलम्बन कर अभ्यासरत हो ।
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