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________________ - १४२ | योगबिन्दु सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् वह ज्ञानमय चक्षु है । शास्त्र सभी प्रयोजनों का साधक है । [ २२६ ] न यस्य भक्तिरेतस्मिंस्तस्य अन्धप्रेक्षा क्रियातुल्या कर्मदोषादसत्फला धर्मक्रियाsपि हि । 11 जिसकी शास्त्र में भक्ति - श्रद्धा नहीं है, उस द्वारा आचरित धर्म - क्रिया भी कर्म - दोष के कारण उत्तम फल नहीं देती । वह अन्धे मनुष्य की प्रक्षाक्रिया -- देखने के उपक्रम जैसी है । अन्धा देखने का प्रयत्न करने पर भी कुछ देख नहीं पाता। यही स्थिति उस क्रिया की है । अन्धे के पास नेत्र नहीं है और शास्त्रभक्तिशून्य पुरुष के पास शास्त्र से प्राप्य ज्ञानचक्षु नहीं है । यों दोनों एक अपेक्षा से समान ही हैं । [ २२७ ] यः श्राद्धो मन्यते मान्यानहङ्कारविवर्जितः । गुणरागी महाभागस्तस्य धर्मक्रिया परा || जो श्रद्धावान् गुणानुरागी, सौभाग्यशाली पुरुष सम्माननीय सत्पुरुषों · का अहंकाररहित होकर सम्मान करता है, उस द्वारा आचरित धर्म - क्रिया अत्यन्त श्रेष्ठ होती है । [ २२८ ] शास्त्रे तस्य श्रद्धादयो गुणाः । 11 यस्य त्वनादरः उन्मत्तगुणतुल्यत्वान्न प्रशंसास्पदं सताम् जिसका शास्त्र के प्रति अनादर है, उसके श्रद्धा, व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान आदि गुण एक पागल अथवा भूत-प्रेत आदि द्वारा ग्रस्त उन्मादी पुरुष के गुणों जैसे हैं । वे सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसनीय नहीं हैं । Jain Education International यद्यपि श्रद्धा आदि गुण अपने आप में बहुत अच्छे हैं पर जिस व्यक्ति - रूप पात्र में वे टिके हों, वह यदि विकृत हो तो इन उत्तम गुणों का भी यथेष्ट लाभ मिल नहीं पाता । उन्मत्त पुरुष के साथ यही बात है और यही बात उस पुरुष के साथ है, जो नासमझी के कारण शास्त्र का अनादर करता है । यह भी तो एक प्रकार उन्माद ही है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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