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________________ विधा शुद्ध अनुष्ठान | १४१ [ २२२ ] उपदेशं विनाऽप्यर्थकामौ प्रति पटुर्जनः ।। धर्मस्तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः अर्थ और काम-धन और सांसारिक भोग में मनुष्य बिना उपदेश के भी निपुण होता है। किन्तु धर्म-ज्ञान शास्त्र बिना नहीं होता। अतः शास्त्र के प्रति आदर रखना मनुष्य के लिए बड़ा हितकर है। [ २२३ ] अर्थादावविधानेऽपि तदभावः परं नृणाम् । धर्मेऽविधानतोऽनर्थः क्रियोदाहरणात् परः यदि कोई अर्थोपार्जन का प्रयत्न न करे तो इतना ही होता है, उसके धन का अभाव रहेगा। पर, यदि धर्म के लिए वह प्रयत्न न करे तो आध्यात्मिक दृष्टि से उसके लिए बड़ा अनर्थ हो जाता है। औषधि-सेवन के उदाहरण से इसे समझना चाहिए। जैसे कोई रोगी यदि भली भाँति औषधि न ले तो उसका रोग बढ़ता जाता है, अन्तत: मारक भी सिद्ध हो सकता है। इसी प्रकार धर्माचरण न करने से होने वाला अनर्थ आत्म-स्वस्थता में, आत्मकल्याण या आत्माभ्युदय में बाधक होता है । [ २२४ ] तस्मात सदैव धर्मार्थो शास्त्रयत्नः प्रशस्यते । लोके मोहान्धकारेऽस्मिन् शास्त्रालोकः प्रवर्तकः ॥ इसलिए धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के हेतु जो शास्त्रानुशीलनरूप प्रयत्न किया जाता है, वह प्रशंसनीय है। मोह के अन्धकार से आच्छन्न जगत् में शास्त्रालोक-शास्त्राध्ययन से मिलने वाला प्रकाश मार्गदर्शक है। [ २२५ ] पापामयौषधं शास्त्रं शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् ॥ शास्त्र पाप रूपी रोग के लिए औषधि है। शास्त्र पुण्य-बन्ध का , हेतु है-पुण्य कार्यों में प्रेरक है। शास्त्र सर्वत्र-गामी नेत्र है-शास्त्र द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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