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________________ १४० | योगबिन्दु आर्य-उत्तम पुरुष इस कोटि के अनुष्ठान को बाह्य समझते हैं, उसे अन्तर्मल युक्त मानते है । देखने में वह चाहे सुन्दर प्रतीत हो पर है मात्र बाहरी । क्योंकि वैसा करने वालों के हृदय में अन्तःकालुष्य विद्यमान रहता है । वह किसी दुष्ट राजा द्वारा शासित नगर के चारों ओर परकोटा • बनाने के प्रयत्न जैसा है । जब दुष्ट राजा का शासन है तो नगर में बसने वाले लोग उसकी दुष्टता से उत्पीड़ित हैं ही, फिर परकोटे से कैसी रक्षा, - कैसा बचाव ? [ २१९ ] तृतीयाद् दोषविगमः सानुबन्धो नियोगतः । गृहाद्यभूमिकापाततुल्यः कश्चिदुदाहृतः ॥ तीसरी कोटि के अनुष्ठान से निश्चित रूप में दोषों का अपगम होता है । दोषापगम का सातत्य-शृंखला बनी रहती है । कतिपय विद्वानों ने इसे गृह की आद्य भूमिका-मकान की नींव के सदृश कहा है। [ २२० ] एतद्ध्युदग्रफलदं गुरुलाघवचिन्तया : अतः प्रवृत्तिः सर्वैव सदैव हि महोदया ॥ गुरु, लघु-उच्च, अनुच्च के सन्दर्भ में सम्यक् चिन्तन युक्त होने के कारण यह (तीसरा) अनुष्ठान अति उत्तम फलप्रद है। उसके अन्तर्गत निष्पन्न होने वाली समग्र क्रिया-प्रक्रिया साधक के लिए सदा महोदयअत्यन्त अभ्युदय-समुन्नतिकारक होती है । [२२१] परलोकविधौ शास्त्रात् प्रायो नान्यदपेक्षते । आसन्नभव्यो मतिमान् श्रद्धाधनसमन्वितः आसन्न-भव्य-निकट काल में मोक्षगामी, बुद्धिशील, श्रद्धारूप धन से युक्त पुरुष परलोक-सम्बन्धी विषयों में शास्त्र के अतिरिक्त और किसी का आधार नहीं लेता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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