SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ | योगबिन्दु शुद्ध विषय - शुद्ध लक्ष्य, शुद्ध उपक्रम तथा अनुबन्ध - निरवरोध रूप में आगे चलती श्रृंखला - यों तीन प्रकार से अनुष्ठान शुद्ध हो, यह अपेक्षित है । तीनों उत्तरोत्तर उत्कृष्ट - एक दूसरे से आगे से आगे उत्तम कहे गये हैं । [ २१२ ] आद्य यदेव मुक्त्यर्थ क्रियते पतनाद्यपि । तदेव मुक्त्युपादेयलेशभावाच्छुभं मतम् 11 मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लिये पहाड़ की चोटी से गिरना आदि प्रथम भेद में आते है । क्योंकि गिरने वाले ने यत्किञ्चित् रूप में मोक्ष की उपादेयता स्वीकार की है, मोक्ष के अस्तित्व तथा वाञ्छनीयता में विश्वास प्रकट किया है । [ २१३ ] द्वितीयं तु यमाद्येव न यथाशास्त्रमेवेह लोकदृष्ट्या व्यवस्थितम् । सम्यग्ज्ञानाद्ययोगतः " दूसरे अनुष्ठान में लौकिक दृष्टि से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह रूप यम आदि के व्यवस्थित पालन का समावेश होता है । पर, सम्यक्ज्ञान आदि के न होने से वह यथावत् रूप में शास्त्र सम्मतः नहीं होता । तृतीयमप्यदः प्रशान्तवृत्त्या सर्वत्र तत्त्वसंवेदनानुगम् । दृढमौत्सुक्यवजितम् 11 तीसरे अनुष्ठान में दूसरे में उक्त यम आदि का परिपालन तत्त्वसंवेदन -- तत्त्व - ज्ञानपूर्वक होता है । अर्थात् वहाँ स्थित साधक की यह विशेषता होती है कि उसे तत्व बोध प्राप्त रहता है। उसकी वृत्ति में प्रशान्त भाव रहता है । किन्तु उसके साधनाभ्यास में दृढ़ - तीव्र स्थिर उत्सुकता नहीं होती । आद्यान्न तद्योगजन्मसन्धानमत [ २१४ ] Jain Education International किन्तु [ २१५ ] दोषविगमस्तमो बाहुल्ययोगतः । एके प्रचक्षते ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy