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भिन्नग्रन्थि | १३७
[ २०७ ] प्रकतेरायतश्चैव
नाप्रवृत्त्यादिधर्मताम् । तथा विहाय घटत ऊहोऽस्य विमलं मनः ॥
जब तक प्रकृति वर्तनशील रहती है, तब तक अप्रवृत्ति-निवृत्तिसंयममूलक धर्म जीवन में घटित नहीं होता । जैसे जैसे प्रकृति का पुरुष से-आत्मा से वियोग घटित होता जाता है, वैसे-वैसे मन निर्मल होता जाता है, तदनुरूप चिन्तन-विमर्श गति पकड़ता है।
[ २०८ ] सति चाश्मिन् स्फुरद्रत्नकल्पे सत्त्वोल्बणत्वतः ।
भावस्तमित्यतः शुद्धमनुष्ठानं सदैव हि ॥
भावात्मक स्थिरता के कारण तब देदीप्यमान रत्न की तरह अन्तरात्मा में सत्त्वसम्पृक्त ज्योतिर्मय चिन्तन उद्भासित होता है, मन प्रशान्त हो जाता है। साधक के जीवन में सदा शुद्ध अनुष्ठान विलसित होता है।
[ २०६ ] एतच्च योगहेतुत्वाद् योग इत्युचितं वचः ।
मुख्यायां पूर्वसेवायामवतारोऽस्य केवलम् ॥ योग का हेतु होने से तदनुरूप अनुष्ठान को भी योग कहना उचित ही है। भिन्नग्रन्थि द्वारा आचरित मुख्य-तात्त्विक पूर्व सेवा के अवसर पर यह प्रकट होता है। विधा शुद्ध अनुष्ठान
[ २१० ]
सच्छास्त्रपरतन्त्रता । सम्यक्प्रत्ययवृत्तिश्च तथाऽत्रैव प्रचक्षते ॥ त्रिविध शुद्ध अनुष्ठान, सत् शास्त्रों की आज्ञा के अनुरूप वर्तन, शास्त्रों में सम्यक् श्रद्धा, दृढ़ विश्वास-ये योग में सहकारी हैं ।
[ २११ ] विषयात्मानुबन्धेस्तु त्रिधा शुद्धमुदाहृतम् । अनुष्ठानं प्रधानत्वं ज्ञेयमस्य यथोत्तरम्
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