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________________ १३० | योगबिन्दु [ १८० ] कृतश्चास्या उपन्यासः शेषापेक्षोऽपि कार्यतः । नासन्नोऽप्यस्य बाहुल्यादन्यथै तत्प्रदर्शक : 11 शेष - अपुनर्बन्धक जीवों के अतिरिक्त - पुनर्बन्धक जीवों की दृष्टि से भी पूर्व सेवा का उल्लेख किया गया है । क्योंकि वह औपचारिक पूर्वसेवा उन्हें वास्तविक पूर्वसेवा तक पहुँचाने में कारण बनती है । जो पुरुष अपुनर्बन्धकावस्था के सन्निकटवर्ती है, वह प्रायः इसके - पूर्व सेवा के रूप में निरूपित आचार के विपरीत नहीं चलता । वैसा शालीन आचार उसका होता ही है । [ १८१ ] शुद्ध यल्लोके यथा रत्नं जात्यं काञ्चनमेव वा गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम् ॥ लोक में जैसे शुद्ध किया जाता - सम्मार्जित - संशोधित या परिष्कृत किया जाता उच्च जाति का रत्न या स्वर्ण विभिन्न गुणों से समायुक्त हो जाता है, शोधन तथा परिष्कार से उसमें अनेक विशेषताएँ आ जाती हैं, उसी प्रकार जीव भी अन्तःशोधन के क्रम में सदनुष्ठान द्वारा अनेक उच्च गुणसंयुक्त हो जाता है । इस पर चिन्तन-पर्यालोचन करें । [ १८२ ] तत्प्रकृत्यैव शैषस्य केचिदेनां प्रचक्षते I आलोचनाद्यभावेन तथाभोगसङ्गताम् कइयों का यह कथन है - अपुनर्बन्धक के अतिरिक्त अन्यों का पूर्व - सेवारूप अनुष्ठान एक ऐसा उपक्रम है, जो आलोचन - विमर्श या स्वावलोकन रहित तथा उपयोगशून्य है । [ १८३ Jain Education International ] मलविषे न यत् । युज्यते चैतदप्येवं तोत्रे तदावेगो भवासस्तस्योच्च विनिवर्तते एक अपेक्षा से यह ठीक ही है, जब तक कर्म - मलरूपी तीव्र विष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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