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________________ अपुनर्बन्धक : स्वरूप | १३१ आत्मा में व्याप्त रहता है, तब तक उसके दूषित प्रभाव के कारण सांसारिक आसक्ति तथा उस ओर आवेग-प्रगाढ़ तीव्रता बनी रहती है, मिटती नहीं। [ १८४ ] संक्लेशायोगतो भूयः कल्याणाङ्गतया च यत् । तात्त्विको प्रकृति या तदन्या तूपचारतः ॥ जब मनुष्य को प्रकृति में संक्लेशाऽययोग-आत्मोन्मुख क्रिया में विघ्नों का अयोग हो जाता है-विघ्न दूर हो जाते हैं, कल्याण-श्रेयस् प्रमुखरूप में व्याप्त हो जाता है, तब वह (प्रकृति) तात्त्विक-यथार्थ अथवा योगान्तभूत होती है, यह जानना चाहिए । उससे भिन्न प्रकृति औपचारिक कही जाती है। [ १८५ ] एनां चाश्रित्य शास्त्रेषु व्यवहारः प्रवर्तते । ततश्चाधिकृतं वस्तु नान्यथेति स्थितं ह्यदः ॥ प्रकृति का आधार लेकर शास्त्र-व्यवहार प्रवृत्त होता है उसके आधार पर शास्त्रों में एतत्सम्बन्धी विवेचन-विश्लेषण चलता है। अतः शास्त्र द्वारा अधिकृत-स्वीकृत, प्रतिपादित तथ्य निश्चय ही निरर्थक नहीं है। उसकी अपनी सार्थकता है। [ १८६ ] शान्तोदात्तत्वमत्रैव शुद्धानुष्ठानसाधनम् । सूक्ष्मभावोहसंयुक्तं तत्त्वसंवेदनानुगम् अपुनर्बन्धक-स्थिति में शान्त, उदात्त-भावोन्नत, सूक्ष्म ऊहापोह सहित तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप की अनुभूतियुक्त शुद्ध अनुष्ठान क्रियान्वित होता है। [ १८७ ] शान्तोदात्तः प्रकृत्येह शुभभावाश्रयो मतः । धन्यो भोगसुखस्येव वित्ताढ्यो रूपवान् युवा ॥ जैसे एक धनी, सुन्दर, युवा पुरुष सांसारिक भोग भोगने में भाग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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