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________________ अपुनर्बन्धक : स्वरूप | १२९ अन्तिम पुद्गल-परावर्त में विद्यमान पुरुष के मुक्ति आसन्न--समीपवर्तिनी होती है। संसार में वह अनेक पुद्गल-परावर्तों में से गुजरा है, अनेक भवों में बहुविध कष्ट झेले हैं, तब इस अन्तिम एक पुद्गल-परावर्त को व्यतीत करना कोई भारी बात नहीं है। . [ १७७ ] अत एव च योगज्ञरपुनर्बन्धकादयः । भावसारा विनिर्दिष्टास्तथापेक्षादिवजिताः ॥ अपुनर्बन्धक, सम्यक्दृष्टि तथा चारित्री भावसार-उत्तम भाव युक्त एवं अपेक्षावजित-फलासक्तिरहित होते हैं, ऐसा योगवेत्ताओं ने बतलाया है। अपुनर्बन्धक : स्वरूप [ १७८ } भवाभिनन्दिदोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्युतः । वर्धमानगुणप्रायो अपुनर्बन्धको मतः ॥ जो भवाभिनन्दी जीव में पाये जाने वाले दोषों के प्रतिकूल गुणों से युक्त होता है, अभ्यास द्वारा उत्तरोत्तर गुणों का विकास करता जाता है, वह अपुनर्बन्धक होता है। [ १७६ ] अस्यैषा मुख्यरूपा स्यात् पूर्वसेवा यथोदिता । कल्याणाशययोगेन शेषस्याप्युपचारतः पूर्वसेवा, जो पहले वणित की गई है, अपुनबन्धक जीवों में मुख्य रूप से घटित होती है । वे उसका विशेष रूप से परिपालन करते हैं । क्योंकि उनके आत्म-परिणामों में पवित्रता का भाव होता है । इसके अतिरिक्त दूसरों की-पुनर्बन्धक जीवों की पूर्व सेवा, जिसका इतर परंपराओं में प्रतिपादन हुआ है, मात्र औपचारिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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