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१२८ | योगबिन्दु
[ १७३ ] सत्साधकस्य चरमा समयाऽपि विभीषिका । न खेदाय यथाऽन्त्यन्तं तद्वदेतद् विभाव्यताम् ॥
उत्तम मन्त्र-साधक को अपने मन्त्र-विशेष के अनुष्ठान की साधना के अन्त में (भूत, वैताल आदि के) भीषण दृश्य दिखाई देते हैं पर वह उनसे विशेष खिन्न नहीं होता । वैसी ही स्थिति अन्तिम पुद्गल-परावर्त में विद्यमान जीव की होती है। जो भी विघ्न, उपसर्ग आदि उसके जीवन में आते हैं, वह उनसे घबराता नहीं । यह तो उसकी साधना की एक कसौटी है।
[ १७४ ] सिद्ध रासन्न भावन यः प्रमोदो विजृम्भते ।
चेतस्यस्य कुतस्तेन खेदोऽपि लभतेऽन्तरम्
जब सिद्धि प्रकट होने का समय समीप होता है, तब साधक के चित्त में अत्यन्त आनन्द उत्पन्न हो जाता है। उसके मन में फिर खेद कहाँ से हो।
[ १७५ ] न चायं महतोऽर्थस्य सिद्धिरात्यन्तिको न च । मुक्तिः पुन योपेता सत्प्रमोदास्पदं ततः ।।
मन्त्र-विद्या आदि की साधना से प्राप्त होने वाली सिद्धि कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं करती । न वह स्थायी रूप में साधक के पास टिकती ही है। मोक्ष के रूप में जो आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त होती है, उसमें ये दोनों विशेषताएं रहती हैं। जीवन का चरम साध्य उससे सधता है । वह शाश्वत होती है-सदा स्थिर रहती है, साथ ही साथ विशुद्ध-परपदार्थ-निरपेक्ष आनन्द से आपूर्ण होती है ।
[ १७६ ] आसन्ना चेयमस्योच्चैश्चरमावतिनो यतः । भूयासोऽमी व्यतिक्रान्तास्तदेकोऽत्र न किंचन ॥
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