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________________ अध्यात्म-जागरण | १२७ [ १६६ ] दिदक्षाभवबीजादिशब्दवाच्या तथा तथा । इष्टा चान्यैरपि ह्येषा मुक्तिमार्गावलम्बिभिः ॥ मोक्ष-मार्ग का अवलम्बन करने वालों-उस ओर गतिशील विभिन्न ज्ञानी जनों ने इस योग्यता को दिदृक्षा, भवबीज आदि शब्दों से अनेक रूप में आख्यात किया है। टीकाकार के अनुसार सांख्यमतानुयायी इस योग्यता को 'दिदृक्षा' कहते हैं तथा शैव इसे 'भवबीज' के नाम से अभिहित करते हैं। अध्यात्म-जागरण - [ १७० ] एवं चापगमोऽप्यस्याः प्रत्यावर्त सुनीतितः । स्थित एव तदल्पत्वे भावशुद्धरपि ध्र वा प्रत्येक पुद्गलावर्त में जीव की कर्म-बन्ध की योग्यता उत्तरोत्तर कम होती जाती है। यों योग्यता के अल्प या मन्द हो जाने पर निश्चित रूप में भावों की शुद्धि उत्पन्न होती है। [ १७१ ] ततः शुभमनुष्ठानं सर्वमेव हि देहिनाम् । विनिवृत्ताग्रहत्वेन तथाबन्धेऽपि तत्त्वतः उसके फलस्वरूप प्राणियों के जीवन में शुभ अनुष्ठान क्रियान्वित होने लगता है। उनका दुराग्रह हट जाता है। इसका कर्मबन्ध पर भी प्रभाव होता है । अर्थात् वह हलका होने लगता है । [ १७२ ] नात एवाणवस्तस्य प्राग्वत् संक्लेशहेतवः । तथाऽन्तस्तत्त्वसंशुद्ध रुदनशुभभावत: अन्तर्मन की संशुद्धि तथा तीव्र शुभ भाव के कारण तब कर्म पुद्गल मनुष्य के लिए पहले की तरह क्लेशकारक नहीं बनते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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