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________________ १२६ | योगबिन्दु आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि होते हुए भी है तो बन्ध या परस्पर-बद्धता ही, जिसका क्रम निरन्तर चलता रहता है । योग्यता के बिना ऐसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है। [ १६६ ] एवं चानादिमान् मुक्तो योग्यताविकलोऽपि हि । बध्येत कर्मणा न्यायात् तदन्यामुक्तवृन्दवत् ॥ यदि आत्मा में कर्म-बन्ध की योग्यता न मानी जाए तो वह जीव भी, जो अनादिकाल से मुक्त है-ईश्वर रूप में है, संसारस्थ बद्ध आत्माओं की तरह कर्मबद्ध होगा क्योंकि इस मत के अनुसार जब योग्यता के न होने पर भी संसारी आत्माओं के कर्म-बन्ध होता है तो फिर मुक्त आत्माओं के कर्म-बन्ध क्यों नहीं होगा। [ १६७ ] तदन्यकर्मविरहान्न चेत् तद्बन्ध इष्यते । तुल्ये तद्योग्यताऽभावे न तु किं तेन चिन्त्यताम् ॥ यों कहा जाना चाहिए कि सदा से मुक्त जीव कर्म-बन्ध में नहीं आता, क्योंकि वह पहले कभी कर्म-बन्ध में नहीं आया, तब तक लागू नहीं होता, जब तक बद्ध आत्मा पर भी इसे लागू न किया जाए क्योंकि आत्मत्व की दृष्टि से मूल रूप में जो भी सिद्धान्त निर्मित होता है वह आत्मा मात्र पर घटित होना चाहिए। [ १६८ ] तस्मादवश्यमेष्टव्या स्वाभाविक्येव योग्यता । तस्यानादिमती सा च मलनान्मल उच्यते ॥ अतः जीव में अनादिकाल से कर्म बाँधने की स्वाभाविक योग्यता है, ऐसा मानना चाहिए। वह जीव कर्म का मलन-नाश करने की क्षमता लिए हुए है, इसलिए उसकी संज्ञा 'मल' भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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