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________________ सदनुष्ठान | १२५ वे परस्पर भिन्न होते हैं । दोनों के अनुष्ठाताओं में मूलतः भेद होता है। एक अत्यन्त संसारासक्त होता है, दूसरा संसार में रहते हुए भी विशेषतः धर्मोन्मुख । अतएव उनके अनुष्ठान में भेद होना स्वाभाविक ही है। [ १६२ ] यतो विशिष्टः कर्ताऽयं तदन्येभ्यो नियोगतः । तद्योगयोग्यताभेदादिति सम्यग्विचिन्त्यताम् ।। । अन्तिम पुद्गल-परावर्त में स्थित अनुष्ठाता योगाराधना में अपनी विशिष्ट योग्यता के कारण औरों से-जो अन्तिम से पूर्ववर्ती परावर्तों में विद्यमान होते हैं , भिन्न होता है, इस पर भली-भाँति चिन्तन करें। [ १६३ ] चतुर्थमेतत् प्रायेण ज्ञयमस्य महात्मनः । सहजाल्पमलत्वं तु युक्तिरत्र पुरोदिता ॥ उस (चरम पुद्गलावर्तवर्ती) सत्पुरुष के सहज रूप में कर्म-मल की अल्पता होती है, ऐसा पहले उल्लेख किया गया है। वह ऊपर वणित भेदों में चौथे भेद--तद्ध तु में आता है। बन्ध-विचार [ १६४ ] सहज तु मलं विद्यात् कर्मसम्बन्धयोग्यताम् । आत्मनोऽनादिमत्त्वेऽपि नायमेनां विना यतः ॥ कर्मों को आकृष्ट करना संसारावस्थ आत्मा का स्वभाव है। आत्मा अनादि है, इसलिए प्रवाह-रूप से आत्मा तथा कर्म का सम्बन्ध भी अनादि है । बांधना तथा बद्ध होना आत्मा एवं कर्म की योग्यताएँ हैं । [ १६५ ] अनादिमानपि ह्येष बन्धत्वं नातिवर्तते । योग्यतामन्तरेणापि भावेऽस्यातिप्रसंगता ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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