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________________ १२४ | योगबिन्दु [ १५८ ] अनाभोगवतश्चैतदननुष्ठानमुच्यते संप्रमुग्धं मनोऽस्येति ततश्चैतद् यथोदितम् ॥ जिसका मन संप्रमुग्ध, वस्तु-तत्त्व का निश्चय कर पाने में असमर्थ होता है, ऐसे व्यक्ति द्वारा अनाभोग-उपयोग बिना-गतानुगतिक रूप में जो क्रिया की जाती है, वह अननष्ठान है। अर्थात् वह किया हुआ भी न किया जैसा है। सदनुष्ठान - [ १५६ ] एतद्रागादिकं हेतुः श्रेष्ठो योगविदो विदुः । सदनुष्ठानभावस्य शुभभावांशयोगतः ॥ पूजा, सेवा, व्रत आदि के प्रति जहाँ साधक के मन में राग-अनुरक्तता बनी रहती है, उससे प्रेरित हो, वह सदनुष्ठान करता है, योगवेत्ता जानते हैं, बताते हैं, वह योग का उत्तम हेतु है, क्योंकि उसमें शुभ भाव का अंश विद्यमान है । वह तद्धतु कहा जाता है। [ १६० ] जिनोदितमिति वाहूर्भावसारमदः पुनः । संवेगगर्भमत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवाः ॥ जिस अनुष्ठान के साथ साधक के मन में मोक्षोन्मुख आत्म-भाव तथा भव-वैराग्य की अनुभूति जुड़ी रहती है और साधक यह आस्था लिये रहता है कि यह अर्हत्-प्रतिपादित है, उसे मुनिजन अमृत कहते हैं । [ १६१ ] एवं च कर्तभेदेन चरमेऽन्यादृशं स्थितम् । पुद्गलानां परावर्ते गुरुदेवादिपूजनम् ॥ अन्तिम पुद्गलावर्त में गुरुपूजा, देवपूजा, आदि जो अनुष्ठान किये जाते हैं, वे तथा अन्तिम पुद्गलावर्त से पूर्ववर्ती आवों में किये जाते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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