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असदनुष्ठान | १२३. स्वस्थ व्यक्ति सेवन करे तो भोज्य पदार्थ की परिणति एक जैसी नहीं होती, भिन्न-भिन्न होती है।
[ १५४-१५५ ] इत्थं चैतद् यतः प्रोक्तं सामान्येनैव पञ्चधा । विषादिकमनुष्ठानं विचारेऽत्रैव योगिभिः ॥ विषं गरोऽननुष्ठानं तद्धतुरमृतं परम् । गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानत:
गुरु, देव आदि की पूजा, व्रत, प्रत्याख्यान, सदाचार-पालन आदि अनुष्ठान अपेक्षा-भेद से विष, गर, अननुष्ठान, तद्ध तु तथा अमृत-यों सामान्यतः पाँच प्रकार के होते हैं । योगियों ने ऐसा बतलाया है ।
। १५६ ] विषं लब्ध्याद्यपेक्षात इदं सच्चितमारणात् ।
महतोऽल्पार्थनाज्ञयं लघुत्वपादनात्तथा ॥
जिस अनुष्ठान के पीछे लब्धि-यौगिक विभूति- चामत्करिक शक्ति प्राप्त करने का भाव रहता है, वह विष कहा गया है, क्योंकि वह चित्त की पवित्रता को मार डालता है-समाप्त कर देता है। महान कार्य को अल्प प्रयोजनवश तुच्छ बना देता है तथा साधक में लघुत्व--छोटापन ला देता है।
[ १५७ ] दिव्यभोगाभिलाषण गरमाहुर्मनीषिणः ।
एतद् विहितनोत्यैव कालान्तरनिपातनात् ॥
जिस अनुष्ठान के साथ दैविक भोगों की अभिलाषा जुड़ी रहती है,. उसे मनीषी जन गर (शनैः शनैः मारने वाला विष) कहत हैं। भौगिक वासना के कारण कालान्तर एवं भवान्तर में वह आत्मा के दुःख और अधः-- पतन का कारण होता है।
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