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________________ १२२ | योगबिन्दु बसस्नुष्ठान [ १५० ] भवाभिष्वङ्गभावेन तथाऽनाभोगयोगतः । साध्वनुष्ठानमेवाहु तान् भेदान् विपश्चितः ॥ भवाभिष्वङ्ग-संसार में अत्यधिक आसक्ति होने से तथा अनाभोग योग से- कर्म-निर्जरा के भाव बिना, मन के उपयोग बिना कर्म होते रहने से विद्वज्जन इन तोन अनुष्ठानों को, जो आगे चचित है, सदनुष्ठान नहीं कहते। [ १५१ ] इहामुत्र फलापेक्षा भवाभिष्वङ्ग उच्यते । तथाऽनध्वसायस्तु स्यादनाभोग इत्यपि ॥ इस लोक तथा परलोक में फल की इच्छा लिए रहना-ऐहिक तथा पारलौकिक फल की कामना से कर्म करना भवाभिष्वङ्ग कहा जाता है। अनध्यवसाय-उचित अध्यवसाय का अभाव-क्रिया में मन का उपयोग न रहना अनाभोग कहा जाता है। [ १५२ ] एतद्युक्तमनुष्ठानमन्यावर्तेषु तद् ध्रुवम् । चरमे त्वन्यथा ज्ञयं सहजाल्पमलत्वतः ।। अत्यधिक संसारासक्ति से युक्त अनुष्ठान अन्तिम पुद्गल-परावर्त से पहले के पुद्गल-परावर्तों में होते हैं । अन्तिम पुद्गल-परावर्त में सहजतया अल्प-मलत्व-कर्म-कालिमा की अल्पता होती है अतः वे वहाँ नहीं होते। __ [ १५३ ] एकमेव हनुष्ठानं कर्तृ भेदेन भिद्यते । सरुजेतरभेदेन भोजनादिमतं यथा ॥ एक ही अनुष्ठान कर्ता के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है । जैसे एक ही भोज्य पदार्थ एक रुग्ण व्यक्ति सेवन करे और उसे ही एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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