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पूर्वसेवा | १२१
तापसों का आचार्य अपने मस्तक पर एक मुकुट धारण किये रहता था। मुकुट में मोर का पंख लगा था। भीलराज के मन में आया, वह भी वैसा मुकुट पहने किन्तु वन में एक भी मोर नहीं था क्योंकि इन आखेटप्रिय भीलों ने पहले ही उनका शिकार कर डाला था। भीलराज ने यह सोच तापसों के आचार्य से मुकूट देने का अनुरोध किया। आचार्य ने भीलराज की माँग स्वीकार नहीं की। तब भीलराज ने आचार्य की हत्या कर मुकुट प्राप्त करने का भीलों को आदेश दिया। भीलराज ने हत्या के लिए नियुक्त भोलों से कहा-ये तापसराज हमारे गुरु हैं, इसलिए तुम लोग इनके पैर मत लगाना क्योंकि गुरुजनों को पैर से छूने से बड़ा पाप होता है, यों उन्हें पैर से न छूते हुए उन्हें मारकर मुकुट ले आना। भीलों ने वैसा ही किया।
विचारणीय है, यहाँ भीलराज की आज्ञा के दो भाग हैं। एक भाग में गुरु को पैर से न छूने के रूप में आदर-भाव व्यक्त किया गया है तथा दूसरा भाग गुरु के वध से सम्बद्ध है, जो घोर हिंसामय है। अतः यहाँ भीलराज ने जो आदर दिखाने की बात कही है, वह मात्र विडम्बना है, सारहीन है। एक ओर प्राण लेना तथा दूसरी ओर पैर से न छूने की बात कहना सर्वथा अज्ञानमय है। वैसी ही स्थिति उस व्यक्ति के साथ है, जो बड़े-बड़े दोषों का सेवन करता है पर साथ ही थोड़ा-सा सत्कार्य भी कर लेता है । घोर दोषपूर्ण क्रिया के समक्ष ऐसे नगण्य से सत्कार्य की क्या महत्ता है !
[ १४६ ] गुर्वादिपूजनान्नेह तथा गुण उदहृतः ।
मुक्त्यद्वषाद् यथाऽत्यन्तं महापायनिवृत्तितः ॥
गुरुजनों की पूजा आदि में इतना गुण या लाभ नहीं बताया गया है, जितना घोर अनर्थकर सांसारिक जंजाल से निवृत्त करने वाले–छुड़ाने वाले मोक्ष के प्रति द्वेष न रखने में कहा गया है।
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