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________________ १२० ] योगबिन्दु इस कारण मोक्ष के प्रति द्वष का अभाव आत्महित हेतु -मोक्ष-माग . प्राप्त करने में सहायक होता है । उसपे आत्मा का कल्याण सधता है । [ १४७ ] येषामेव न मुक्त्यादौ द्वषो गुर्वादिपूजनम् । त एव चारु कुर्वन्ति नान्ये तद्गुरुदोषतः ॥ जिनका मोक्ष-मार्ग में द्वष नहीं होता, जो गरु, देव आदि की पूजासभक्ति आराधना करते हैं, वे ही लोग अपने जीवन में उत्तम कल्याण-कार्य कर पाते हैं। उनके अतिरिक्त दूसरे, जिनमें बड़े-बड़े दोष व्याप्त होते हैं, श्रेयस्कर मार्ग प्राप्त नहीं कर सकते । [ १४८ ] सच्चेष्टितमपि स्तोकं गुरुदोषवतो न तत् । भौतहन्तुर्यथाऽन्यत्र पादस्पर्शनिषेधनम् ॥ भारी दोषों का सेवन करने वाला यदि थोड़ा-सा अच्छा कार्य भी करे तो उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, वह नगण्य है। वह तो भीलों के राजा की उस आज्ञा जैसा है, जिसमें उसने अपने भौत-भौतिकता प्रधान अथवा शरीर पर भूति-राख मले रहने वाले गुरु को पर से न छूने की तो हिदायत की थी किन्तु जान से मारने का संकेत किया था । इस श्लोक के साथ एक दृष्टान्त जड़ा हुआ है, जो इस प्रकार है: किसी वन में बहत से भील रहते थे। उनका अपना नगर था। उन्होंने अपने में से एक प्रमुख भील को राजा के रूप में प्रतिष्ठापित कर रखा था। वे भील राह चलते लोगों को लूट लेते, मदिरा, मांस, व्यभिचार आदि दुष्कृत्यों में सदा दुर्ग्रस्त रहते थे। एक बार संयोगवश कुछ तापस वहां आये, जो फल, फूल, कन्द, मूल आदि खाकर अपना जीवन चलाते थे । भीलों ने उनका उपदेश सुना। वे उनसे प्रभावित हुए तथा भजन, पूजन आदि में उनके साथ भाग लेने लगे। तापसों का आचार्य देवी-देवताओं की पूजा करने, यज्ञ करने तथा गुरु, ब्राह्मणों को दान देने आदि का उपदेश करता था। भीलराज अपने साथियों के साथ उनका भक्त हो गया। वह श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उन्हें उत्तम भोजन कराता, आदर देता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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