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पूर्वसेवा | ११६ जैसे स्वाराधना-आत्माराधना-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना का सर्वोत्तम फल मोक्ष कहा गया है, उसी प्रकार उनके ध्वंस या विराधना का फल घोर अनर्थकर है।
[ १४३ ] उत्तुङ्गारोहणात् पातो विषान्नात् तृप्तिरेव च ।
अनर्थाय यथाऽत्यन्तं मलनाऽपि तथेक्ष्यताम् ॥ । अत्यन्त ऊँचे स्थान पर चढ़कर वहाँ से गिरना, विषयुक्त अन्न खाकर सन्तुष्ट होना जैसे अत्यन्त अनर्थ के लिए होता है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के नाश से आत्मा का घोर अहित होता है।
[ १४४ ] अत एव च शस्त्राग्निव्यालदुर्ग्रहसन्निमः । श्रामण्यदुर्ग्रहोऽस्वन्तः शास्त्र उक्तो महात्मभिः ॥
शस्त्र, अग्नि तथा सर्प को यदि अयथावत् रूप में रखा जाए-उन्हें सहेजकर न रखा जाए तो वे कष्टप्रद सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार श्रामण्यश्रमण-जीवन का ठीक रूप में निर्वाह न हो-चारित्र की विराधना हो तो महापुरुषों ने शास्त्र में उसे असुन्दर-अशोभन, क्लेशकर कहा है ।
[ १४५ ] ग्रेवेयकाप्तिरप्येवं मातः श्लाघ्या सुनोतितः । यथाऽन्यायाजिता सम्पद् विपाकविरसत्वतः ॥
अन्त:करण की शुद्धि के बिना पाला जाता श्रमण-धर्म नव वेयक देवलोक तक पहुंचा देता है किन्तु वह न्याय-दृष्टि से-वास्तव में प्रशंसनीय नहीं होता । वह तो अन्याय द्वारा अजित धन जैसा है, जो परिणाम-विरस होता है-जिसका फल दुःखप्रद होता है।
[ १४६ ] अनेनापि प्रकारेण द्वषाभावोऽत्र तत्त्वतः । हितस्तु यत् तदेतेऽपि तथा कल्याणभागिनः ॥
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