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११८ | योगबिन्दु
किसी वैष्णव विद्वान् का न्याय-दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को या गौतम के अनुयायी किसी अन्य नैयायिक को गौतम के नाम से सम्बोधित कर यह कथन है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। पर एक बात है, वैष्णव मोक्ष के प्रति ऐसी अरुचि दिखाएं. यह संगत प्रतीत नहीं होता ।
टीकाकार ने बतलाया है कि यह श्लोक गालव ऋषि के मत का सूचक है, जो उन्होंने अपने शिष्यों में से किसी गौतम नामक शिष्य को सम्बोधित कर कहा हो।
[ १३६ ] महामोहाभिभूतानामेवं द्वषोऽत्र जायते ।
अकल्याणवतां पुंसां तथा संसारवर्धनः ॥
घोर मोह से दुर्ग्रस्त, अकल्याणमय मनुष्यों में इस प्रकार मोक्ष के प्रति द्वेष होता है, जो उनके संसार बढ़ाने का-जन्म-मरण के चक्र में बार-बार आने का कारण बनता है ।
[ १४० ] नास्ति येषामयं तत्र तेऽपि धन्याः प्रकीर्तिताः । भवबीजपरित्यागात् तथा कल्याणभाजिनः ॥
जिन भव्य पुरुषों का मोक्ष के प्रति द्वेष नहीं होता, वे धन्य हैं। संसार के वीजरूप मोह का परित्याग कर देने के कारण वे कल्याण के भागी बनते हैं।
[ १४१ ] सज्ज्ञानादिश्च यो मुक्तेरुपायः समुदाहृतः । ।
मलनायैव तत्रापि न चेष्टेषां प्रवर्तते ॥
सद्ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को मुक्ति का उपाय कहा गया है। भव्य जनों की इन आत्मगुणों के नाश हेतु चेष्टा-प्रवृत्ति नहीं होती अर्थात् वे ऐसे कार्य नहीं करते, जिनसे सद्ज्ञान आदि दूषित हों।
[ १४२ ] स्वाराधनाद यथैतस्य फलमुक्तमनुत्तरम् । मलनायास्त्वनर्थोऽपि महानेव तथैव हि ॥
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