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________________ पूर्वसेवा | ११७ भिन्न-भिन्न पापों की अपेक्षा से अर्थात् भिन्न-भिन्न पापों के प्रायश्चित्त के दृष्टिकोण से तदनुरूप निर्दिष्ट भिन्न-भिन्न मंत्रों के जप एवं विधिक्रम के साथ, सांसारिक विषयों से, अशुभ कर्मों से विरत रहते हुए जो तप साधा जाता है, वह पापसूदन नामक तप है । । १३६ ] कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्ति गसंक्लेशजिता । भवाभिनन्दिनामस्यां द्वषोऽज्ञाननिबंधनः समग्र कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष भोंगसांसारिक सुख तथा दुःख से रहित है। भवाभिनन्दी (संसार में अत्यन्त आसक्त) प्राणियों को अज्ञान-मिथ्यात्व भाव के कारण मोक्ष के प्रति द्वेष होता है। [ १३७ ] अ यन्ते चैतदालापा लोके तावदशोभनाः । शास्त्रेष्वपि हि मूढानामश्रोतव्याः सदा सताम् ॥ लोक में तथा लोकपरायण शास्त्रों में ऐसे आलाप-कथन सुने जाते है, जो सत्पुरुषों के लिए सुनने योग्य नहीं है-जिन्हें सत्पुरुष सुनना तक नहीं चाहते। [ १३८ ] वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् । न त्वेवाविषयो मोक्षः कदाचिदपि गौतम! ॥ गौतम ! रमणीय वृन्दावन में गीदड़ की योनि में जन्म लेना भी हमें अभीष्ट है। जो इन्द्रियों का अविषय है-जो इन्द्रियों द्वारा अनुभूत नहीं किया जा सकता, अथवा जो सुन्दर दर्शन, मधुर श्रवण, सुखद संस्पर्श, मनोज्ञ भाषण तथा सुरभित आघ्राण जैसे इन्द्रिय-सुखों से शून्य है, वह मोक्ष हमें नहीं चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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