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११६ / योगबिन्दु
इसका अभिप्राय यह है--जिस प्रकार चन्द्रमा की कला शुक्लपक्ष में प्रतिदिन उत्तरोत्तर बढ़ती है, पूर्णिमा को वह परिपूर्णता पाती है, उसी के अनुरूप व्रती प्रतिपदा को एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास, तृतीया को तीन ग्रास, चतुर्थी को चार ग्रास, यों एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन करे । फिर कृष्णपक्ष में जैसे चन्द्रमा की कला क्रमशः घटती जाती है, उसी प्रकार प्रतिपदा को चवदह ग्रास, द्वितीया को तेरह ग्रास, तृतीया को बारह ग्रास, चतुर्थी को ग्यारह ग्रास, यों उत्तरोत्तर एकएक ग्रास घटाते हुए अमावस्या को सर्वथा निराहार रहे । चन्द्रमा के घटनेबढ़ने के आधार पर खाने के क्रम चलने के कारण इसे चान्द्रायण व्रत कहा गया है।
[ १३३ ] सन्तापनादिभेदेन
कृच्छमक्तमनेकधा । अकृच्छ्रादतिकृच्छ्षु हन्त ! सन्तारणं परम् ॥
कृच्छ्र तप संतापन आदि भेद से अनेक प्रकार का है। कष्ट न मानते हुए, कष्टपूर्ण विधियों को सम्पन्न करने, उन द्वारा आत्म-शुद्धि के पथ पर. अग्रसर होने का यह उत्तम मार्ग है।
टीका में कृच्छ तप के संतापन-कृच्छ, पाद-कृच्छ तथा संपूर्ण-कृच्छये तीन भेद बतलाये गये हैं और तीनों का पृथक्-पृथक् विवेचन किया. गया है।
[ १३४ ] मासोपवासमित्याहुमत्युघ्नं तु तपोधनाः । । मृत्युञ्जयजपोपेतं परिशुद्ध विधानतः ॥
तपस्वीजन उस तप को मृत्युञ्जय तप कहते हैं, जहाँ एक मास तक का उपवास रखा जाता है, साथ ही साथ मृत्युजय मंत्र का जप किया जाता है तथा जो परिशुद्ध विधि-विधानपूर्वक संपादित किया जाता है ।
[ १३५ ] पापसूदनमप्येवं
तत्तत्पापाद्यपेक्षया । चित्रमन्त्रजपप्रायं प्रत्यापत्तिविशोधितम्
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