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८८ | योगबिन्दु
आदि तत्त्व-सिद्धि में बाधक नहीं होते-जो प्रत्यक्ष, अनुमान आदि से अनुगत या संगत हैं, उन्हीं के आधार पर दृष्ट तथा अदृष्ट में प्रवृत्त होना उपयुक्त है।
[ २६ ] अतोऽन्यथा प्रवृत्तौ तु स्यात् साधुत्वाद्यनिश्चितम् । वस्तुतत्त्वस्य हन्तैवं सर्वमेवासमंजसम् ॥
जो इन (पूर्व विविक्त) तथ्यों के प्रतिकूल प्रवृत्तिशील होता है, वह वस्तुतत्त्व की सत्यता, असत्यता का निश्चय नहीं कर पाता । अतः उस द्वारा साधनाक्रम में क्रियमाण-उसका समग्र प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होता है।
[ २७ ] तद्दष्टाद्यनुसारेण वस्तुतत्त्वव्यपेक्षया
तथा तयोवितभेदेऽपि साध्वी तत्त्वव्यवस्थितिः ॥
प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि के आधार पर वस्तु-तत्त्व के परीक्षण से भिन्न-भिन्न दार्शनिक परंपराओं में प्रवृत्त कथन-भेद के बावजूद यथार्थ तत्व का अवबोध होता है।
[ २८ ] अमुख्यविषयो यः स्यादुक्तिभेदः स बाधकः । हिंसाऽहिंसादिवद् यद्वा तत्त्वमेदव्यपाश्रयः ॥
गौण विषयों में जो कथन-भेद (साथ ही साथ विचार-भेद) है, वह, हिंसा और अहिंसा जैसे परस्पर भिन्न हैं, उसी प्रकार भिन्नता युक्त है। वास्तव में वहाँ तत्त्व-स्वीकार में ही भेद है।
[ २६ ] मुख्य तु तत्र नैवासौ बाधकः स्याद् विपश्चिताम् । हिंसादिविरतावर्थे यमवतगतो यथा
मुख्य विषय में--मौलिक तत्त्वों में शब्द-भेद विज्ञजनों के लिए बाधक नहीं होता। जैसे हिंसा-विरति को पातंजलयोग में यम कहा है और जैन दर्शन में व्रत, यहाँ शब्द दो हैं पर तथ्य एक ही है ।
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