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योग : असंकीर्ण साधना-पथ | ८७
लोक तथा शास्त्र से जिसका अविरोध हो-जो अनुभव-संगत तथा शास्त्रानुगत हो, वही योग योग्य - आदेय या अनुसरणीय है । मात्र जो जड़ श्रद्धा पर आधृत है, विवेकशील पुरुषों के लिए वह अभीप्सित नहीं होताविज्ञजन उसे उपादेय नहीं मानते, नहीं चाहते ।
[ २३ ]
संसिद्ध रेतदप्येवमेव तस्मादेतन्मृग्यं
वचनादस्य
दृष्टेष्टबाधितं
१
हितैषिणा
आगम— शास्त्र-वचन अथवा योगसिद्ध पुरुषों की वाणी द्वारा योग सम्यक् सिद्ध है । वह तत्त्वतः वैसा ही है, जैसा इन द्वारा आख्यात हुआ है । दृष्ट या अनुभूत रूप में स्वरूप, परिणाम आदि की दृष्टि से वह उसी रूप में उपलब्ध है अर्थात् वह दृष्ट द्वारा बाधित नहीं हैं और न उससे अभीष्ट ही बाधित होता है । दूसरे शब्दों में, क्योंकि वह यथार्थ की पृष्ठभूमि पर टिका है, अतः उससे अभीप्सित फल की सिद्धि होती है । आत्मकल्याण के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह उसका मार्गण - गवेषण करे, उसे यथावत् रूप में समझ कर अपनाए ।
[ २४ ]
यत्रास्ति
हि ।
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दृष्टबाधैव असच्छ्रद्धाभिभूतानां
केवलं
दृष्ट — प्रत्यक्ष, अनुमान आदि द्वारा प्रतीतियोग्य तत्त्व भी जिन शास्त्रों द्वारा सिद्ध नहीं होता - जिनका तद्विषयक प्रतिपादन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के भी विरुद्ध होता है, उनके आधार पर अदृष्ट में प्रवृत्त होना, प्रवृत्त व्यक्तियों की अन्धश्रद्धा की दासता का परिचायक है । उससे क्या सधे ?
ततोऽदृष्टप्रवर्तनम् । V
बाध्य सूचक म् 11
[ २५ ]
बाध्यते IV
प्रत्यक्ष णानुमानेन यदुक्तोऽर्थो न दृष्टेऽदृष्टेऽपि युक्ता स्यात् प्रवृत्तिस्तत एव तु ॥
जिन शास्त्रों के अनुसार यथार्थ निर्णय के सन्दर्भ में प्रत्यक्ष, अनुमान
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