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________________ ८६ | योगबिन्दु [ १६ ] विज्ञया परिपाकादिभावतः । साकल्यस्यास्य औचित्याबाधया सम्यग्योग सिद्धिस्तथा तथा t जब साधक उपर्युक्त तथ्यों को आत्मसात् कर पाता है; जीव तथा कर्म - पुद्गलों के संयोग की एक मोक्षानुकूल परिपक्व स्थिति आती है, जहाँ समुचित धर्म-प्रवृत्ति में बाधा नहीं रहती, तब वह भव्यता - मोक्ष - गमनयोग्य बीज रूप क्षमता द्वारा योगानुभूति प्राप्त करता है, योग-साधना के पथ पर गतिमान् होता हुआ उत्तरोत्तर विकास करता जाता है, सम्यक् योग-सिद्धि प्राप्त करता है । [२०] एकान्ते सति तद्यत्नस्तथाऽसति च यद् वृथा । तत्तथायोग्यतायां तु तद्भावेनैष सार्थकः "1 & यदि आत्मा को एकान्त - नित्य या एकान्त अनित्य माना जाए तो उस हेतु किये गये प्रयत्न की कोई सार्थकता सिद्ध नहीं होती । क्योंकि जो एकान्ततः नित्य है, उसमें प्रयत्न द्वारा कोई परिवर्तन आ नहीं सकता । जो एकान्त रूप में अनित्य है, उसके लिए प्रयत्न की कोई अपेक्षा नहीं होती । अतः आत्मा को पूर्वोक्त रूप में योग्यता सहित - कर्म-बन्ध, कर्म - निर्जरण आदि की क्षमता से युक्त (परिणामि नित्य) मानने पर ही प्रयत्न की सार्थकता या प्रयोजनीयता है । [ २१ ] दैवं पुरुषकारश्च तुल्यावेतदपि स्फुटम् । युज्यते एवमेवेति वक्ष्याम्यूर्ध्वमदोऽपि हि ॥ व्यक्ति की जीवन-निर्मिति में भाग्य तथा पुरुषार्थ – दोनों स्पष्टतः समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं, यह मानना वास्तव में युक्तियुक्त है। आगे इस सन्दर्भ में विशेष चर्चा होगी । [ २२ ] लोकशास्त्राविरोधेन यद्योगो योग्यतां ब्रजेत् । श्रद्धामात्रैकगम्यस्तु हन्त ! नेष्टो विपश्चिताम् 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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