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________________ [ १५ ] उपचारोऽपि च प्रायो लोके यन्मुख्यपूर्वकः । सर्वमित्यमेव व्यवस्थितम् "1 दृष्टस्ततोऽप्यदः लोक में उपचार मुख्यपूर्वक होता है - मुख्य को लक्ष्य में रखकर निरूपण में उपचार का व्यवहार होता है । अतएव जगत् का सारा व्यवस्था *म समीचीन रूप में चल रहा है । [ १६ ] ! ऐदम्पर्य तु विज्ञेयं एवं व्यवस्थिते तत्त्वे योग : असंकीर्ण साधना-पथ | ८५ सर्वस्यैवास्य भावतः 1 योगमार्गस्य संभवः ॥ जीव, कर्म, योग्यता, संयोग आदि भावों की जो यथार्थ स्थिति ऊपर प्रतिपादित की गई है, उसे विशेष रूप से जानना, समझना चाहिए । यों होने पर ही योग मार्ग पर आने की संभावना घटित होती हैं - वैसे ज्ञान और विश्वास से युक्त साधक का योग साधना में अग्रसर होना संभव है । [ १७-१८ ] पुरुष: क्षेत्रविज्ज्ञानमिति नाम यदात्मनः 1 अविद्या प्रकृतिः कर्म तदन्यस्य तु भेदतः ॥ संयोगस्येति कीर्तितम् । भ्रांति - प्रवृत्ति बन्धास्तु शास्ता वन्द्योऽविकारी च तथाऽनुग्राहकस्य तु ॥ Jain Education International नाम-भेद से विभिन्न दार्शनिक आम्नायों में मूल तत्त्वों की प्रायः समानता है । जैसे आत्मा को वेदान्त तथा जैनदर्शन में पुरुष, सांख्यदर्शन में क्षेत्रवित् या क्षेत्रज्ञ तथा बौद्धदर्शन में ज्ञान कहा गया है । आत्मेतर तत्सहवर्ती विजातीय तत्त्व वेदान्त और बौद्ध दर्शन में अविद्या, सांख्यदर्शन में प्रकृति तथा जैनदर्शन में कर्म के नाम से अभिहित हुआ है । आत्मा का विजातीय द्रव्य से सम्बन्ध वेदान्त एवं बौद्धदर्शन में भ्रान्ति, सांख्यदर्शन में प्रवृत्ति तथा जैनदर्शन में बन्ध कहा गया है । उसी प्रकार अनुग्राहकआत्मा पर अनुग्रह या उपकार करने वाला जैनदर्शन में शास्ता, बौद्ध दर्शन में वन्द्य तथा शैव व भागवत परंपरा में अविकारी नाम से सम्बोधित किया गया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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