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८४ | योगबिन्दु अस्तित्व में आता है तो वह वर्तमान बन जाता है । वर्तित होकर वह (वर्तमान) भूत में परिणत हो जाता है । यों परिणत होने की परम्परा सादि है पर भूत के रूप में समाहृत होते रहना—यह प्रवाहरूप से अनादि है। क्योंकि यह क्रम कब से प्रारंभ हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता । इसी प्रकार क्षण-क्षण कर्म-पुद्गलों के आत्मसंपृक्त होने को प्रक्रिया तत्तत्क्षण की दृष्टि से सादि है पर आत्मा और कर्म-पुद्गल संयोग की परंपरा प्रबाह रूप से अनादि है । संयोग की अनादिमत्ता न मानने से तत्त्व-निरूपण-व्यवस्था में विरोध आता है।
[ १२ ] अनुग्रहोऽप्यनुग्राह्ययोग्यतापेक्ष एव तु । नाणुः कदाचिदात्मा स्याद् देवतानुग्रहादपि ॥
अनुग्रह-देव आदि की कृपा अनुग्राह्य- अनुग्रह करने योग्य-जिस पर अनुग्रह किया जाए, उसकी योग्यता पर निर्भर है। देवता के अनुग्रह से भी परमाणु कभी आत्मा नहीं बन सकता; क्योंकि उस (परमाणु) में वैसी योग्यता नहीं होती।
[१३-१४ ] कर्मणो योग्यतायां हि कर्ता तद्व्यपदेशभाक् । नान्यथाऽतिप्रसङ्गन लोकसिद्धमिदं ननु ॥ अन्यथा सर्वमेवैतदौपचारिकमेव हि ।
प्राप्नोत्यशोभनं चैतत् तत्त्वतस्तवभावतः ॥
कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की योग्यता है, इसी कारण आत्मा का कर्मों पर कर्तृत्व घटित होता है । यदि ऐसा न मानें तो अतिप्रसंग दोष आता है। यह लोक में प्रसिद्ध ही है।
यदि इसे अन्यथा-अन्य प्रकार से माना जाए तो वह सब, जो हमारे दैनन्दिन जीवन में घटित होता है, औपचारिक मात्र होगा। वास्तविकता न होने से वह अशोभन-अनिष्ट या अवांछित होगा।
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